“ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ,
जब हुआ, तब हुआ, ओ छोड़ो, ये ना सोचो!”
(क्या हुआ – और कैसे? और क्यों?
चलो, जो हुआ, सो हुआ, अब इस बारे में सोचो मत, आगे बढ़ते रहो)
सीमाएं एकदम लोगों पे केंद्रित होती हैं, सीमाओं पे नियम ऐसे ही बनाए गये/बेतरतीब/ऐंवई नहीं होते। लेकिन कल्पना को जिंदा रखने के लिए, और दूसरों के साथ रिश्ते बनाकर अपनी लालसाओं को यथार्थ में परिवर्तित करने के लिए, सीमाओं का होना बहुत महत्वपूर्ण है। मैं मिस्टर “हम आपके हैं कौन” से एक सम्मेलन/कॉन्फ्रेंस में मिली और बहुत जल्द हमने आपस में फ़ोन नंबर साझा किए; हम लोकल अड्डों पे शराब और बातचीत के लिए मिलने लगे। मैं उसका वर्णन एक होशियार और वामपंथी सोच वाले इंसान के रूप में करना चाहूँगी। मैं किसी गंभीर रिश्ते की खोज में नहीं थी। हाँ, मैं शारीरिक आत्मीयता के लिए भूखी थी – तो ज़ाहिर सी बात है कि संभोग मेरे ज़हन पे काफ़ी हावी था। बहुत जल्द हम एक दूसरे के घरों पे समय बिताने लगे। कौमुक दिलचस्पी से आवेशित हमारी छेड़खानी, बिजली सी चमकती। तो फ़िर आप सोच रहे होंगे कि सहमति कब बनी – कामेच्छा के आगे हो जाने का वह हसीन पल कब आया होगा? दिलचस्प बात यह है कि, सहमति पे हमारे बीच एक बहुत ही व्यापक और मौखिक चर्चा हुई। आमतौर पर हम सहमति को पारस्परिकता, मंजूरी और अनुमति के मायनों से समझते हैं, और मैं भी इनमें विश्वास रखती हूँ। लेकिन यह सहमति लेने के बारे में एक ३०-मिनिट लंबी और विस्तृत बातचीत थी: मौखिक और गैर-मौखिक लैंगिक अग्रिमों(यानी, सेक्षुयल अड्वान्सस ) की एक सजी सजाई और जटिल समझ।
हम एक दूसरे की तरफ़ मुँह करके लेटे हुए थे, और वह मेरे बालों से खेल रहा था। उसने मुझे मालिश देने का प्रस्ताव रखा और मैंने सोच लिया कि यह उसके लिए आगे बढ़ने का एक तरीका था, तो मैंने उसे चूमने के लिए अपना सिर आगे किया। पर उसने मुझे रोका और पूछा कि क्या ये सब जो हो रहा है, मैं उस से सहमत थी? मैंने जवाब दिया, “हाँ, क्या तुम भी यही नहीं चाहते?”। उसने फ़िर मुझे रोका और समझाया कि हाँ, चाहता तो वो भी यही था, लेकिन उसे जानना था कि क्या मैं आगे बढ़ने के लिए तैयार थी। उसे यह सुनिश्चित करना था कि मैं आगे बढ़ने के लिए किसी भी किस्म का दबाव तो नहीं महसूस कर रही थी।
मैंने सोचा, यह तो कमाल की उपलब्धि है । ऐसा कितनी बार होता है कि कोई ऐसे पुरुष से मिलता है जो महिलाओं की लालसाएँ जिन संदर्भों मे संचालित होती हैं, उनके बारे में इतने सम्मोहक तरीके से बातचीत करता है और उन्हें समझता है; और लैंगिक आनंद को समझता है, और दोनों को आपके सामने मानो एक तश्तरी में हाज़िर करता है ? मैं ऐसे पुरुषों से बहुत कम मिलती हूँ जो मेरी जरूरतों और ख्वाहिशों का इतना ध्यान रखते हैं और जिन्हें, जो मुझे सहज लगे, उन दायरों में चलने से कोई आपत्ति नहीं होती। आमतौर पर रिझाना और चिढ़ाना ही संभोग की ओर का रास्ता खोलते हैं। बातचीत नहीं! सहमति तो वाकई कामुक/सेक्सी है। तो मैंने सोचा क्यों ना इसका सुख ले लूँ।
तो वैसे ही चलता रहा। मैं किसी से मिली थी, उसके ध्यान में रहने के मज़े ले रही थी, फिर हमारा रिश्ता क्या था, इस पर मैं ज़्यादा ध्यान नहीं दे रही थी। मैं अपने काम समयसीमा पर पूरा करने में काफ़ी व्यस्त थी। मुझे उस से कभी यूँही मिलना (ड़्रिंक्स के लिए), कभी उसके यहाँ रह जाना, और रात भर संभोग करना पसंद था। वह मेरे नाम पे गाने समर्पित करता। वह बातचीत के बीचों–बीच मुझे कविता पढ़कर सुनाता। वह मेरे लिए खाना बनाने का प्रस्ताव रखता। लेकिन यह शुरुआत से ही स्पष्ट था कि हम में से कोई भी अधिक भावनात्मक रूप से प्रतिबद्ध या बहुत रोमांटिक होने की तलाश में नहीं था।
समय के साथ, हमारी मुलाकातें कम हो गयीं। हम कभी नियिमित रूप से फ़ॉलो–अप या संपर्क में रहनेवालों में से नहीं थे। पर कहीं ना कहीं मैंने मान लिया था कि पहले जैसे, किसी ना किसी रूप में वो मेरी ज़िंदगी में मौजूद रहने वाला था।
एक दिन उसने मुझे उसके दोस्त के घर पे रात के खाने का न्योता दिया। वह शाम मेरे लिए कुछ अजीब थी क्योंकि उसने पूरी शाम मुझसे बात नहीं की। मैंने बिना कुछ सवाल पूछे, इस बात से प्रभावित ना होने का, और उसपर प्रतिक्रिया ना करने का फ़ैसला किया। मेरा बचपन फ़ौजी जीवन के संस्कारों से प्रभावित रहा था, उसकी बदौलत, मैं सिर्फ़ एक हद तक बातों को व्यक्तिगत स्तर पे लेती हूँ। चीज़ें थोड़ी अजीब भी हों, तब भी मैं मज़े लेने के अपने तरीके ढूँढ निकालती हूँ।
पर उसकी चुप्पी का अंदर से मुझ पर असर हुआ। मैंने एक विनम्र बातचीत की उम्मीद की थी क्योंकि उसी ने मुझे आमंत्रित किया था। ज़ाहिर है कि इस घटना से मेरे अंदर कुछ रुक सा गया । हालांकि हम फ़िर भी एक दूसरे को मेसेज करते, मैंने अनजाने में अपनी बातचीत को सीमित कर दिया था और खुद को जीवन के और क्षेत्रों पे ध्यान देते हुए पाया था। वह मुझे कभी-कभी मेसेज कर देता – कुछ खास नहीं – बस चुटकुले और बिल्लियों की तस्वीरें। मैं उसके मेसेज का जवाब देती पर ऐसी किसी बातचीत की शुरुआत नहीं करती जो मिलने में तबदील हो।
यह मैं यकीन के साथ तो नहीं कह सकती कि क्या मैं उससे मिलने का प्रोग्राम बनाने की अपेक्षा करती थी, लेकिन कभी-कभी वह मज़ाक में पूछता कि क्या मुझे चाय की ज़रूरत थी, या किसी चुटकुले की । पर उसने मिलने के लिए खुल के कभी नहीं कहा।
फ़िर, हाल ही में, हमने कुछ ड़्रिंक्स के लिए मिलने का फ़ैसला किया। और जैसे होता है, हम पुरानी यादों को लेकर थोड़े भावुक हो गये। मेरी जिज्ञासा ने मुझे पूछने पे मजबूर कर दिया, “हमने संभोग करना बंद क्यों कर दिया? हम उस निष्कर्ष पे कैसे पहुँचे? जब हमने संभोग के पहले सहमति पे इतनी विस्तृत चर्चा की थी, तो उसे बंद करते वक्त तुमने सहमति क्यों नहीं ली?”
मुझे नहीं मालूम कि मैंने यह सवाल क्यों किए। यह सब एक बहुत ही स्वाभाविक तरीके से हुआ, क्योंकि वर्तमान का वह पल अतीत की भावनाओं के बोझ से दबा हुआ तो नहीं लग रहा था । लेकिन शायद मैं यह देखना चाहती थी कि क्या हमारे बीच अब भी लैंगिक/कौमुक तनाव था या नहीं।
“मैंने बिन पूछे (तुम्हारी)सहमती मान ली “, उसने जवाब दिया।
उस दिन के बाद मैंने कई दफ़ा सोचा है कि हम सहमति की चर्चा सिर्फ़ कुछ शुरु होने के पहले क्यों करते हैं? सहमती सिर्फ़ तब क्यों लेते हैं जब हम संभोग चाहते हैं या रिश्ते की शुरुआत करना चाहते हैं? हम तब सहमति पर ज़ोर क्यों नहीं देते या उसपर खुलकर बातचीत क्यों नहीं करते जब हमें रिश्ते को ख़त्म करना होता है, चाहे वह ‘फ़्रेंड़्स विद बेनिफ़िट्स ‘(अच्छी दोस्ती, सूद समेत) वाली स्थिति ही क्यों ना हो? जब हम सहमति पे इतनी विस्तृत तरीके से बातचीत करते हैं – जो कि गैर-मौखिक तरीके से भी सूचित की जा सकती है – बिन बातचीत किए उसे यूँ ही नहीं मानना चाहते हैं- तो हम अंत को ऐसे ही क्यों मान लेते हैं? उस पे भी चर्चा क्यों नहीं करते?
मैं हाल ही में अपने कॉलेज के प्रोफ़ेसर से मिली और हम आज के डिजिटल समय में सहमति और ड़ेटिंग के स्वभाव को लेकर चर्चा करने लगे, जहाँ पर सहमति यूँ ही मान ली जाती है । और उन्होंने यह विचार पेश किया कि कैसे हमारी चेतना टैकनोलजी से इतनी प्रभावित है कि यह अंत के आभास से ही रहित हैं। हम अंत से जुड़ी किसी बातचीत को कभी जगह नहीं देते क्योंकि अंत के आभास में शोक करना शामिल है और इसके लिए किसी के पास समय नहीं है – या शायद इसके लिए कोई समय बनाना नहीं चाहता।
और मुझे एहसास हुआ कि हम इस दिजिटल दुनिया में टैकनोलजी से कितने प्रभावित हैं। मुझे लगता है कि हम जिस आसानी से पोस्ट, अप्लोड़, ड़ाऊनलोड़ और शेयर करते हैं, वह हमारे लैंगिक मानसिकता पे प्रभाव ड़ालता है । हम ‘हाँ’ और ‘नहीं’ के विचारों/मायनों पे ऑनलाईन चर्चा करते हैं और इन्हें अपने व्यवहार का हिस्सा बना लेते हैं।
पर शायद हम अपने आप को भी आवेगहीन- ‘पैसिव’ से – जीव बना लेते हैं, जिनके जीवन, भावनाएँ और खुदी भी महज़ एक निरंतर चलने वाली टाईमलाईन है।हम कहते हैं कि हम आगे बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन बिना किसी अंत के एहसास के और ना उसे समझने की क्षमता के साथ।
हेन्ना वैद दिल्ली में रहती हैं और अपनी जीविका एन.जी.ओ (गैर सरकारी संगठन) मानसिक स्वास्थ के प्रोजेक्ट पे काम करते हुए कमाती हैं।
What a wonderful piece. Kudos!
I read it interestingly, very nicely started went on really good but why she was in such a hurry to conclude it. But a nice one.