वह लड़की है कहाँ (जो फिल्मों में हीरो की तारीफें गाती हो)? - Agents of Ishq

वह लड़की है कहाँ (जो फिल्मों में हीरो की तारीफें गाती हो)?

लेख : नेहा यादव द्वारा

अनुवाद : नेहा

ग्राफ़िक्स : देबस्मिता दास द्वारा

X से मिलिए।

X जब बीस साल की थी तो उसके साथ हादसा हो गया!

उसे किसी से प्यार हो गया!

वैसा वाला प्यार- रोज़मर्रा के काम कर पाने के लिए जब अपने मन को प्रेमी के राग में खो जाने से जबरन रोकना पड़े

वैसा वाला प्यार- जहां प्रेमी बस धूप की किरण सा तेज़ हो, बल्कि अच्छाई, दयालुता, सज्जनता और कई ढेर सारी ख़ूबियों की प्रतिमा हो

पर उसे जाकर बताने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। क्योंकि बताने का मतलब होता, जोखिम उठाना, अपनी चेतना को दबाना, मन की कायरता पर काबू पाना, उसके निराशावादी दानव को मार गिराना। यानी प्रेम जताना वैसा ही होता जैसे बकरे को हलाल के लिए तैयार करना। या यूं कहें कि अपने गले के साथ साथ एक फंदे को भी जल्लाद के रख देना। (उफ! जब भावनाएं उफान पे हों, तो X ड्रामा क्वीन बन जाती है।)

लेकिन एक और समस्या थी, जिसपे X का ध्यान पहले नहीं गया था: अपने दिल की बात बयान करने के लिए शब्द कहां थे?

X को किसी यूरोपियन इंडी फिल्म की बारीकियों से नहीं, बल्कि बॉलीवुड के जोर शोर के साथ प्यार हुआ था, इसलिए वो कविता और लय की तरफ मुड़ी। गीतसंगीत यकीनन बॉलीवुड का उपहार रहा है ।  रीना दुबे, जो कि रिसर्चर और अकादमिक हैं, ने हिंदी फिल्म गीतों के एक ख़ास पहलू पे अध्ययन किया है: कि वो कैसे किसी को लुभाने का ज़रिया बनते हैं l वो कहती हैं, कि ये गाने सामूहिक और सामाजिक रूप से कल्पना को तो हवा देते ही हैं, पर साथ में पर्सनल इच्छाओं को भी छू जाते हैं।और इस तरह हमारी सनकी चाहतों पर भी उनका रंग चढ़ने लगता है। 

 X ने ऐसा ही कुछ महसूस किया है।

जैसा कि नार्थ इंडिया के लगभग हर घर में होता है, X भी एक ऐसे घर में पलीबढ़ी, जहां उसके मातापिता की जवानी के हिंदी गाने बजा करते थे।  किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, जगजीत सिंह, मुकेश और ऐसे ही कुछ दिग्गज! माता पिता शायद अपने रोज़ के कामधाम में व्यस्त, कहीं अकेले बैठ खुद को ढूंढते हुए, इन गानों के ज़रिये पुराने दिनों को याद किया करते थे। X भले ही इन गानों को सुना करती थी, पर उसे लगता कि उन शब्दों में छिपे भावनाओं के भंवर से उसका कोई लेनादेना नहीं था। हालांकि उन गानों में बसी लालसा, दर्द, आश्चर्य, इच्छा, आक्रामकता, विनती, खुशामद, और चाहत, ये सब X के मन के किसी कोने में दर्ज होते रहे। मन पर पड़े बाकी सांस्कृतिक प्रभावों के संग वो भी अंधेरे में दबे थे। X के जवान होने का इंतज़ार कर रहे थे। ताकि बाहर सकें। 

पर मन के कोने में पनपती इस दुनिया के अनुसार, प्यार में पहला कदम हमेशा मर्द उठाता था। 

ये पहला कदम उठाने वाले कवी हर जगह थे। TV स्क्रीन पर शिफॉन में लिपटी सुंदरियों के साथ गीत गाते, स्पीकर के पीछे से मीठी नोकझोंक करते, नानी के गाँव जाते समय रास्ते भर गाड़ी में बजते! सैकड़ों गीत! मानो सब के सब प्यार नाम के गुरु की सेवा में लगे, एक एक बात जोड़ कर, प्यार के बारे में एक महा काव्य रचते हुए । प्यार के इस मंदिर के पुजारीवही प्रेमीकवि थे। जो वर्षों से, अलगअलग रूपों और अलगअलग स्वरों में अपने प्रेम गीत गा रहे थे ।

यह प्रेमी, जो कि एक मर्द है, काली छतरी के नीचे से प्यारहुआइकरारहुआ गाता है। अपनी भावनाओं को बेधड़क सामने रखता है। उस हवा और बारिश की तरह, जिससे हीरोइन खुद को बचाने की कोशिश कर रही होती है। वो अपनी दिलरुबा से वादा करता है कि उसे पलपलदिलकेपास रखेगा। और उसे कहता है कि वो अपने दिलकेचैन के लिए दुआ करे। हर सपनोंकीरानी को उनकी गुलाबीआंखों और बदनपेसितारे के लिए सराहा गया। और मैंशायरतोनहीं का दावा कर, नई कविता से उस घायल कर गयी हसीना को हासिल करने के पैतरे बने। वो अपनी जानेजाँकोढूंढताफिरता, और उसके पहले या उसके बाद की ज़िंदगी को बेमानी समझता। कभीकभी तो वो सचमुच मान लेता कि उसकी प्रेमिका ज़मीनपेउतराचाँद है और यकीन रखता कि वो भी इतनी आसानी से उसके प्यार को भुलानापाएगी

नए युग के साथ जुमले भी बदल गए। पर मूल भावनाएं तो वही खिलतागुलाब का पहलानशा, और शायरकाख्वाब, और उजलीकिरण वाले बोल सुनकर अब भी दिल फिसलता, सांस रुक जाती। दिलबर के दिल में आरज़ू जगाने के लिए अब भी आशिक गीत चुनता। प्यारहोताहैदीवानासनम, के साथ इस कठोर नियम बनाने वाली दुनिया के सामने करारे तर्क रखे। और चुनौती भी दे डाली कि  इश्ककिजीयेफिरसमझिए  लालइश्क में डूबकर, वो उसकी गलियों में भी फिरता रहा। आखिर वो ही तो उसकी दर्दभीचैनभी थी। कभीकभी वो निराश भी हो जाता था, क्योंकि जोभी कहना चाहता था, अल्फ़ाज़ उसे खत्म कर देते थे।  लेकिन शब्द और गाने के ज़रिये  बयान करना ही बेहतर विकल्प था वरना एकतरफा इश्क़, यानी,  दिलहैमुशकिल हो जाता।

बाकी दुनिया हिंदी सिनेमा पे अक्सर इस बात को लेकर टिप्पणी कसती है कि इसमें लोग बस गातेबजाते हैं और पेड़ों के इर्दगिर्द बिना मतलब के नाचते हैं। लेकिन X ने इन गानों को हमेशा सबके लिए लिखी गयी प्रेम कविताओं के रूप में देखा है। ना उससे कम असरदार, ना ही कम मज़ेदार! बल्कि ये गाने तो मानो आपकी रीढ़ की हड्डी से होते हुए, आपके पेट में तैरकर, आपके सपनों की उड़ान में भी गूंजते रहेंगे 

कवि के प्यार और वादों वाले गीतों की पहुँच और गहराई उनको सम्मोहक बना देती है। कई अरसों तक X ने इस भीनी रोशनी में नहाया और उस सुंदर दुनिया को सीने से लगा के रखा। लेकिन बाद में उदार पंथी आर्ट्स की पढ़ाई ने मुश्किलें पैदा करनी शुरू कर दीं। कुछ गाने मर्द और औरतों के बीच मर्द को बड़ा बता रहे थे, तो कुछ में तो सहमति को नज़रअंदाज किया जा रहा था। कुछ विषमता (यानी मर्दऔरत के बीच ही प्यार हो पाना) को नार्मल समझते थे, और कुछ तो जिसे पसंद करो, उसका पीछा करने को बढ़ावा दे रहे थे। लेकिन सच मानो तो ये पढ़ाई भी गानों के साथ उस अरसों से बंध चुके बंधन को तोड़ नहीं पाए। नुकसान तो हो चुका था।

और X के दिमाग के उस हाल का क्या बयान करें! जब बरसों से सुनते रहे ये सेकेंडहैंड प्रेमगीत उसकी असली ज़िंदगी के इमोशनल बवंडर से टकरा गए। पहले तो X ने असली ज़िंदगी के इस

पागलपन को मानने से इंकार ही कर दिया! लेकिन फिर सबूतों की इतनी मौजूदगी में एक निराशाजनक हार माननी ही पडी! X ने महसूस किया कि उसकी नई भावनाएं उन पुराने गीतों की तर्ज़ पर ही लिखी जा रही थी, जिन्हें वो ना जाने कब से सुनती चली रही है। तड़प जब उठती थी तो उन गानों का जेंडर या उनके पीछे की कहानी नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी भावनाओं को बयान करते हुए वो बोल दिखते थे। 

तड़प l शुरू शुरू में यूं लगता कि तड़पना अपने आप में बहुत कुछ है l वो खून का तेज बहाव, आकाश छूती नब्ज़, ना चाहते हुए भी जागती आंखों से सपने देखने का चक्कर। लेकिन इन जज़्बाती उतार चढ़ाव से

 से मानो, तड़प की असली वजह दब गई। यानी तड़प एक मुखौटा सा था, जिसकी आड़ में ऐसा लगा जैसे आगे कुछ करने की ज़रुरत ही नहीं है l ना उसके लिए कुछ किया गया, कोई जोखिम उठाया गया। यही वो जगह थी जहां सोच के सामने एक दीवार जाती है। परदे पर तड़प का ये सफर यहां से अगले पॉइंट तक जाता और प्यार का इज़हार हो जाता। लेकिन मैं कदम कैसे बढ़ाती। परदे पे ये इज़हार करने वाले बड़े कॉंफिडेंट लोग, ज़्यादातर आदमी ही होते थे l उन्हें देख कर लगता था कि उनको पूरा यकीन है कि उनकी बात मान ही ली जाएगी । 

जो हर मुश्किल उठाता है, उनको जीत आगे बढ़ता है, वो कवि, वो गायक, वो जो सबको लुभा जाता हैमर्द होता है ना!

हाँ, कुछ ऐसे सुंदर, प्यारे, दिल जीतने वाले गाने ज़रूर हैं जो औरतों की इच्छा को सामने रखते हैं। दिल अपना अपना पीर पराई (1960) से अजीब दास्तां है ये, अनपढ़ (1962) से आप की नज़रों ने समझा, यादों की बारात (1973) से चुरा लिया है तुमने जो दिल कोसाजन (1991) से बहुत प्यार करते हैं, सिर्फ तुम (1999) से दिलबरदिलबर और रामलीला (2013) से अंग लगा देदिमाग में कुछ ऐसे उदाहरण आते हैं। और दरअसल, सुष्मिता सेन ने जिस तरह दिलबर दिलबर में संजय कपूर के सामने डांस किया था, X ने तब शायद पहली बार समझा था कि सेक्सुअलिटी का एक पूरा रेंज होता है। ये भी जरूरी नहीं कि वो सिर्फ दो लोगों के बीच हो।  60 और 70 के दशक में फिल्मों में वैम्प (vamp) होती थीं। वो क्लबों और मेहफिलों में उकसा के अपनी चाहतों को सामने रखती थीं। हेलेन उस दौर में चर्चित थीं। कभी सोफ़ी बनकर छोटे नवाब (1961) में महमूद के लिए मतवाली आंखोंवाले गाती थीं। कभी तीसरी मंजिल (1966) में शम्मी कपूर के साथ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली पे रूबी बनकर थिरकती थीं। और कभी तो आंसू बन गए फूल (1969) की नीलम बनकर मर्दों से भरे कमरे में सुनो तो जानी गाकर घूमती थीं। और कभी डॉन (1978) की कामिनी बनकर उभरती थीं।  समीरा मेहता, इन फिल्मों में हेलेन की भूमिकाओं के बारे में लिखती हैं किइन नाचने गाने वाली वैम्प को अक्सरतेज़ तरारमहिला के रूप मेंदिखाया जाता था। इससे मेन हीरोइन के चरित्र को सीमा में दिखाना आसान हो जाता था। इस तरीके से दर्शक को सारे सुख मिल जाते और साथ साथ, हीरोइनसंस्कारीहोने के मापदंड पर खरी उतरती दिखती थी। यानी सिनेमा की जो मोरल दुनिया है, उसमें अगर कोई औरत सेक्सुअल तरीके से उभरकर आये, हिम्मत दिखाए, तो ऐसा मान लिया जाए कि वो वैम्प ही होगी

मेहता का कहना है कि सिनेमा में ये वैम्प, अपनी इन आदतों की वजह से या तो मार दी जाती हैं, या सुधार दी जाती हैं या सीधा गायब कर दी जाती हैं।  विशेष रूप से, उसे कभी भी मर्द/हीरो नहीं मिलता है। इसलिए, एक रोमांटिक मॉडल के रूप में, वो X के लिए कभी फिट नहीं बैठी। खैर, धीरेधीरे हिंदी फिल्मों में बदलाव आया और ये नियम ढीले पड़े। फिर हीरोइन को भी,बिना उसकी निंदा किये, अपनी सेक्सुअल चाहतें दिखाने की आज़ादी मिली। और फिर पूरी सेक्सुअलिटी खुलकर बाहर आई। टिप टिप बरसा पानी में रवीना टंडन या धक धक करने लगा में माधुरी दीक्षित या अंग लगा दे में दीपिका पादुकोण! हालांकि इन हीरोइनों की सुंदरता के आगे X थोड़ा डर गई। वो किसी जन्म में इतनी आकर्षक नहीं बन सकती थी। और जो रोमांटिक डुएट वाले गाने थे, उनमें ये कॉन्फिडेंस था कि आग दोनों जगह लगी है, पर असली ज़िंदगी में X ये अंदाज़ा कैसे लगाती ? तो वो भी पहुंच के बाहर ही था। 

मर्द और औरत को समान अधिकार देने का जोखिम सही तरीके से किसी ने नहीं उठाया। जो रोमांटिक गाने औरतें गाती थीं वो यहां वहां दिखते जरूर थे, पर उनका असर सीमित था। मर्द ही एक दूसरे को ऐसे गाने गाने की मशाल थमाकर परंपरा आगे बढ़ा रहे थे। मर्दों के पास प्रेम दिखाने के कई तरीके होते थे, उनमें से वो कोई भी चुन सकते थे। इसके अलावा मर्द के जेंडर को तो हमारी सभ्यता ने वैसे ही कई अधिकार दे रखे थे। तो उनको कभी शब्दों की कमी नहीं हुई। वो छत से चिल्लाचिल्लाकर अपने प्यार का इज़हार कर सकते हैं। या शोले के वीरू तरह पानी की टंकी से। या कम से कम दीवारों पर लिखकर, यानी ग्राफिटी बनाकर तो जरूर ही।

तो इन तर्कों के आधार पर X इज़हार के मामले में अपनी कायरता को सही साबित कर लेती थी। 

X को खुद पर भी आश्चर्य होता था। फेमिनिस्ट होकर भी, जब अपनी भावनाओं पर बात आई, तो वो उन दकियानूसी नियमों को कैसे मान रही थी। और अगर उसे सच में लगता था  कि जेंडर और कुछ नहीं, एक इज़हार करने का तरीका है, तो फिर वो अपने आप को हीरो के मॉडल पर क्यों नहीं ढाल पा रही थी। और अगर वो सत्यवादी/ कुलटा के बिलकुल विपरीत अर्थों  में विशवास नहीं करती थी, तो फिर वैम्प को मॉडल की तरह क्यों नहीं देख पाती थी। X के हिसाब से इसका जवाब हमारे दिल के अंदर के गड़बड़ घोटाले में है, जो किसी भी ढाँचे में फिट नहीं बैठता। यानी हमसे हमारे आदर्श भी भुला देता है। X फेमिनिस्ट थी। लेकिन जवानी के दिनों मे शाहरुख खान की फिल्मों का उसपे खास असर था। वो भी चाहती थी कि कोई सरसों के खेतों में उसका दिल जीत जाए। उसके लिए पूरी कहानी बना डाले। इन कल्पनाओं से सामने वो भी हार जाती थी।

उसे ये भी लगता था कि शायद किसी भी हालात में वो अपनी मन की बात का पूरा इज़हार नहीं कर पाएगी l पर अगर फिल्मों और साहित्य में  इज़हार करने वाली औरतों की एक लम्बी कतार होती, तो शायद इससे उसके लिए मामला आसान हो जाता।

 

नेहा यादव गोवा में रहती हैं। वो डॉक्टरेट की उम्मीदवार हैं। जब वो किसी रिसर्च या पढ़ाई में डूबी नहीं होती हैं तो शाहरुख की पुरानी फिल्में देखने बैठ जाती हैं

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