सेक्स का वाकई में समर्थन करने के लिए, हमें दो कदम पीछे हटना होगा - Agents of Ishq

सेक्स का वाकई में समर्थन करने के लिए, हमें दो कदम पीछे हटना होगा

ईशान द्वारा

चित्रण- अंजलि कामत 

अगर एक तरफ अफलातूनी प्यार हो, (platonic love- यानी ऐसा प्यार जिसमें वासना है ही नहीं) और दूसरी ओर सेक्स हो, तो दोनों के बीच कामुकता का एक विस्तृत समुन्दर बैठा है, जिसमें कई विभिन्न संभावनाएं मिल सकती हैं पर हम उसे देखने के काबिल हैं कि नहीं?

मेरे बचपन के  इस आठवीं क्लास के क्लासरूम पर ही गौर कीजियेभारत के और स्कूलों से काफी बेहतर स्कूल था, यानी शौचालयों में लगातार बदबू नहीं बैठी रहती थीऔर फीस भी काफी ज़्यादा थी, इतनी ज़्यादा कि पक्के तौर पर कोई एक टीचर हर घड़ी  हमारी निगरानी करता रहता था  तो जीव-विज्ञान का बड़ा फुस्स सा क्लास चल रहा था, और विषय वही महान “यौन रिश्ते द्वारा प्रजनन और सेहत” ( सेक्सुअल रिप्रोडक्शन एंड हेल्थ ) था  हमारी टीचर अपनी चढ़ी हुई त्योरी को सीधा करने में लगी हुई थी, और ‘यौन रिश्ते ‘ कहते हुए अपने चेहरे को भावहीन रखने पर सारा ध्यान लगा था उसका

उसकी भी क्या गलती थी, उसके सामने हम सब जो बैठे थे मुझे ठीक  से ये याद नहीं कि उस क्लास के दौरान मुझे कैसा लग रहा था इसलिए भी नहीं याद कि उस क्लास के दौरान कुछ भी सोचने/बतियाने/महसूस करने की गुंजाइश मेरे क्लास के कुछ बच्चों (जिसमें लड़के ही ज़्यादा थे)  ने अपनी लगातार हंसी और आखों से बहते हंसी के आंसूं से ख़त्म कर दी थी यूं लग रहा था कि क्लास में पहली बार हमारे पास पूछने को बहुत सारे सवाल थे, और हम उन सवालों को बड़े बेडौल शब्दों में पूछने की कोशिश कर रहे थे तभी तो हमारी टीचर इतनी पीड़ित थी ऊपर से उसने भी सोच लिया था कि वैज्ञानिक रूप से उपलब्ध शब्दों का प्रयोग करेगी ही नहीं ‘पेनिस’/ शिश्न या ‘वजाइना’/ योनी – क्यूंकि इन शब्दों का प्रयोग होते ही सब फूट फूट कर हंस पड़ते थे और वो और भी सकपका जाती थी

हममें से कईयों को वो क्लास व्यर्थ लगा था, क्यूंकि हमनें वो सारी पढ़ाई खुद ही कर ली थी  हाँ, हमारे ज्ञान का साधन एक बिलकुल अलग भाषा थी.. खूब डिटेल में दी गयी गाली गालोच की भाषा और ये गाली गलोच केवल खेल के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि हर जगह इस्तेमाल होती, खेल के मैदान में भी और स्कूल की कैंटीन में भी

मेरी एक धुंधली सी याद है कि एक मर्तबा एक बच्चों की विशेष सलाहकार आई थी, हमसे कुछ ‘विशेष बात’ करने ये सत्र लड़कों के लिए अलग से किये गए, लड़कियों के लिए अलग और विशेषज्ञा ने कुछ यूं कहा “कि हमारी उम्र में कुछ ख़ास अहसासों का होना बड़ा ही स्वाभाविक है” मेरे दोस्त जाहिर तौर पर उसकी बात पर खूब ठहाके भर के हँसते और उसके एक एक शब्द को दोहरा कर उनका विश्लेषण करते मैं चुप था, चकराया हुआ सा मुझे बार बार ये ही लगता कि न जाने वो औरत कौन अहसासों, इमोशन, या ख्यालों का ज़िक्र कर रही हैं मुझे क्यों वो बिलकुल समझ नहीं आ रहे थे मेरे दोस्त आखिर इतना हंस क्यों रहे थे?  और वो कौन बला थी जिससे वो भावनाएं हम पर बड़े स्वाभाविक तरीके से उतरने वाली थीं?

हो सकता है कि विशेषज्ञ होने के नाते उसे कभी ये नहीं लगा कि उसे ये स्पष्ट करने की ज़रुरत थी कि इस सब में इतना स्वाभाविक क्या था? उस समय अगर मुझे कोई बात स्वाभाविक लगी वो वो बस ये थी कि मुझे भूख लग रही थी  मुझे अच्छी तरह से याद है  कि मेरे कान स्कूल की घंटी के इंतज़ार में तड़प रहे थे, कि घंटी बजे और मैं यहां से निकलूं

मेरी ‘गर्लफ्रेंड’

हाई स्कूल के उन उत्तेजित सालों के एक और नज़ारे पर गौर करें। मैं एक लड़की को जानता था जिसे मैं अपनी ‘गर्लफ्रेंड’ बुलाता था – मतलब मेरा ऐसा कुछ सोचने से पहले ही मेरे दोस्तों ने उसे ये दर्जा दे दिया था । मुझे याद है हम घंटों बातें करते थे, ये भी याद है कि हम किन बातों की बड़ी परवाह करते थे- तुमने मेरा फोन क्यों नहीं उठाया? तुम मेरे खातिर क्लास क्यों नहीं बंक कर सकते? हम दोनों एक दूसरे के जन्म दिन के लिए बड़ा सा कुछ क्यों नहीं कर सकते? पर मेरी सबसे प्रखर याद तो वही है कि हम जिस भी कमरे में जाते थे, मानो कमरे के पीछे एक सवाल मंडराने लगता था ‘कि तुम दोनों ने ‘वो’ किया है कि नहीं?

बड़े समय तक मैं उस ‘वो’ को समझने की कोशिश करता रहा चिंता मत करो, इतना इल्लड़ भी नहीं था कि मुझे ‘वो’ का मतलब ही नहीं पता था.. मैंने x रेटेड फिल्में देखी थीं फिर भी मेरे मन में ‘वो’ को लेकर बड़े सारे सवाल थे जैसे कि आप खुद समझ गए होंगे, वो जीव विज्ञान की क्लास तो जवाब देने में

किसी काम की ना थीं मेरे दोस्त ये जवाब या तो इंटरनेट की गहराईयों  के भरोसे छोड़ देते थे, या फिर सेक्स को लेकर कुछ ऐसे बात करते जिन बातों में या लड़की, या लड़के का ज़िक्र बड़ी हिंसा के साथ होता  ये सेक्स की सारी क्रिया कैसे होती है, विस्तार में इसपर कोई भी बात नहीं करना चाहता क्या मुझे पहल करनी चाहिए? या वो करे और मैं  कहीं बीच में उसका साथ देने लगूँ ? कैसे पता लगेगा कि वो कहीं बीच तक आ चुकी है? पहली बार के आकस्मिक ‘टच’ के बाद क्या और कैसे किया जाए?  पहले ‘किस’ के बाद क्या और कैसे किया जाए ?

जो जवाब मुझे सबसे सही लगा, वो Yahoo से आया ” तुम रिलैक्स रहो! जब होना होगा, हो जाएगा” ! (स्वाभाविक तरीके से, नहीं? )

तो एक दिन, हम हमेशा की तरह, एक दूसरे के साथ टाइम बिता रहे थे एक ‘पल’ आया, चौथे और पांचवे पीरियड बीच के ब्रेक के दौरान, हमारी आँखें एक दूसरे तो एकटक देख रहीं थीं हम सारे आसपास के शोर को अनसुना कर रहे थेसबसे ज़रूरी बात, हम दुनिया की नज़र से दूर थे (खासकर सारी टीचर्स की नज़र से, जिन्हें शायद लगे कि क्लास टाइम पर आना अच्छी बात है) फिल्मी गानों आदि के अनुसार मुझे लगा कि यही मौक़ा है और मौके पे चौका मारना ही चाहिए यूं लगा कि जैसे तभी वायलिन भी बजने लगेंगे, हम रुपहले दिखने लगेंगे, और भीनी धूप हमारी गहरी त्वचा पर चमकने लगेगी पर मेरे दिमाग में ये ख़याल दौड़ रहे थे :

जो करना था, हुआ कि नहीं? मेरे मुंह से उस पराठे की बू तो नहीं आ रही जो मैंने थोड़ी देर पहले खाया था?  मेरे दांतों पर वो चॉकलेट बिस्कुट तो नहीं, जो हमने आपस में बाँट के खाये थे ? यूं होंठ फुला कर एक दूसरे को देखते हुए हम अजीब नहीं लगेंगे? मेरे होंठ बहुत सूखे हुए हैं क्या? जीभ बहुत भीगी हुई है क्या? मेरी हथेलियां पसीने से भीगी हैं क्या? उसकी हथेलियां पसीने से भीगी हैं क्या? उसके बाल मेरे आड़े आ गए तो मैं क्या करूंगा?  और…

फिर क्या, क्लास का घंटा बजा और हमारे बीच कुछ नहीं हुआ मेरे विवरण में तो सारी गलती घंटे की थी

इस घटना के बात हम ज़्यादा समय साथ नहीं टिक पाए हाँ कुछ कर बैठने के कई मौके मिले हमें, पर हमने कुछ नहीं किया और मुझे इस बात का पूरी तरह से यकीन नहीं है कि हम दोनों ही कुछ नहीं करना चाहते थेमैंने अपने से यही कहा कि भैया, टीचरों और माँ बाप की नैतिक फ़ौज के होते, या फिर टाइम टेबल और एग्जाम के, और उनके द्वारा हमारे समय पर पूरा कण्ट्रोल.. इस सब के चलते, हाई स्कूल के दौरान तो मेरा इस सब के लिए कोइ मूड ही नहीं था! मैं गलत साबित हुआ हाई स्कूल के दौरान अपने मूड को लेकर नहींमुझे लगता है कि जब मैं अपने आप को समझा रहा था कि मैं ‘वो’ चीज़ें क्यों नहीं करना चाह रहा था जो मुझे करनी चाहियें, तब मैं अपने आप से झूठ बोल रहा था

एक अलग सा प्यार

अब कॉलेज के कैंपस पर गौर करें  मैं एक ऐसा आदमी था जो सम्भोग करने की चिंता के छुटकारा चाहने की वजह से और चिंतित हो गया था ऐसे में मेरे पर जो बीती, वो वाकई व्यंगपूर्ण था क्लास बंक कर हम सब कॉलेज की कैंटीन में जाते थे, वो कैंटीन जिसे सब ‘लवर्स पॉइंट’ के नाम से जानते थे, शार्ट में LP चाऊमीन खाते खाते प्यार किया जाता था वहां दिल्ली की सर्दी, जिसपर शायर शायद कुछ ज़्यादा ही कह गए हैं,  से जूझते हुए, कॉफ़ी के कप से अपने हाथ गर्म करते हुए प्यार होता था एक दूसरे का हर हालत में साथ देते हुए, माने पक्की फ्रेंडशिप रखते हुए, कुछ वैसे ही जैसे शोले में जय और वीरू

पर मेरा मन ये मानना चाहता है कि वहां एक और किस्म का प्यार भी होता था  वो प्यार जो मैंने तब किसी से ज़ाहिर किया था, जब सूरज कनौट प्लेस पर ढल रहा था, और अपनी एक चहेतीबुकशॉप के पास, हम एक सबवे के पास बैठे हुए थे  एक चिंगारी पर बसा ये प्यार धीरे धीरे भभकता था, घंटों चलते व्हाट्सप्प (Whatsapp) पर बातों के ज़रिये, किताबों और लेख एक दूसरे से साझा करते हुए, या फिर किसी नापसंद इंसान या बात पर ज़बान साफ़ करते हुए, या फिर साथ में पेंटिंग और शायरी के मज़े लेते हुएये एक वृतांत था, जो टुकड़े दर टुकड़े बनता गया, और हर मोड़ पर चोट भी थी, और ढेर सारी अटकलबाज़ी, कि आगे, घड़ी दर घड़ी, आखिर क्या होगा

ये एक रिश्ता था जो अपने को प्यार का नाम देने से झिझक रहा था, क्यूंकि मुझे पता था कि हमारे

आसपास की हवा में एक और बात मंडरा रही थी ।  अगर आप किसी को प्यार करते हैं, पर किसी कामुक रूप से उन्हें छूना नहीं चाहते, या कामुकता के साथ उन्हें बाहों में भरना नहीं चाहते, तो फिर क्या? अगर मैं उसको प्यार का नाम दे भी दूँ, तो फिर जिनसे मैं प्यार करता हूँ, वो इस इंतज़ार में न जाने कब तक रहेंगे कि मैं वो आख़री पड़ाव भी पार कर पाऊं.. तो क्या ये उनके साथ न- इंसाफ़ी नहीं होगी?

मेरे इर्द गिर्द इन सब सवालों के साफ़ साफ़ जवाब ही नहीं थे, न कोई उदाहरण ही था, मेरे जैसे किसी का, जिससे मैं कुछ समझ सकूं

मैं तब भी सोचता था ( अब भी सोचता हूँ) कि क्या ये तजुर्बा ज़रूरी नहीं था? अगर मैं आगे नहीं बढ़ता तो  मुझे कैसे पता चलता कि मुझमें संभोगिक रूप से किसी के साथ होने की अंदर से चाहत नहीं है कि अपने सारे जोश और आवेश के साथ किसी को प्यार करते हुए भी, अगर मैं उनका हाथ पकड़ने से, उनके बगल में लेटने से, उनके होंठ सहलाने से, कतराता हूँ.. तो फिर मैं परम्परागत तरीकों के किसी के करीब नहीं आना चाहता यानी मेरे साथ ‘वो’ नहीं होने वाला था- सही समय भी हो, सही दूसरा कोई भी हो, फिर भी, मुझमें ‘वो’ करने की ज़रुरत नहीं आने वाली थी और इसका सामना करने का सबसे सही तरीका यही था कि उस दूसरे से इसके बारे में बात की जाए वो इंसान, जिसने पूरे साल मुझे प्रेरणा दी थी, मुझसे ढाढ़स पाया था… जिसने मेरा सबसे अच्छा और सबसे बुरा, दोनों रूप देखे थेकेवल उस इंसान पर मैं पूरे तरह

से विशवास रख सकता था

फिर भी, बात करते समय, हम दोनों के शब्द लड़खड़ाने लगे खुल कर, एक दूसरे की  आँख में आँख डाल कर बात करने में हमको दिक्कत हो रही थी कामुकता और सम्भोग को लेकर जिन बातों से हम परेशान हैं, उनको बयान करना मुश्किल लग रहा था यूं लग रहा था जैसे बर्गर खाते हुए, यूनिवर्सिटी के कैंपस पर चलते हुए, एक  दूसरे से वो बात कहना, जो हमें सता रही थी…हमें गलत लग रहा थाहमारी ट्रेनिंग ही कुछ ऐसी रही थी, कि जिसमें खुल कर ऐसी बातें करना, एक दूसरे से कह पाना कि हम कामुकता को लेकर किस बात से परेशान हैं, सही नहीं माना जाता था सो हम ट्रेनिंग अनुसार ज़्यादा बोल ही नहीं पाए. कुछ खुसर फुसर की, और एक दूसरे से आँख बचाते रहे

वो रिश्ता भी आख़िरकार बिखर गया जैसे कि प्यार में होता ही है, हमारे बीच असममिति (Asymmetry) थी, पर ऐसी नहीं कि जिसमें हम आसानी से फिट हो सकें मुझे लगा कि मुझे उसके साथ और हमारी मेस्सजिस( messages) के लिए तरसना चाहिए  फिर तो मुझे जैसे कालिदास या शेक्सपियर का बुखार चढ़ गया, और मैं वो सब जो हम नहीं सो सके, उसपर पद के बाद पद, लिखता ही गया बार बार अपने को आश्वासन देता कि सब कुछ ठीक ही था अपने से कहता कि साथ रहकर बात करने से कतराने से अच्छा तो यही था कि हम अलग अलग रहकर किसी दूसरे का साथ ढूंढें  

अलैंगिक?

मुझे बताया गया है कि मैं शायद अलैंगिक हूँ एकबार तो अलैंगिक लोगों के लिए बनायी गयी डेटिंग अप्प ( dating app) पर मैंने अपना प्रोफाइल भी बनाया और पाया कि मुझे अपनी पहचान की बारीकियां समझने के लिए कई- कुल मिला कर १२-  विकल्प दिए गए थे। उदाहरण: क्या मैं ऐसा अलैंगिक था जिसे रोमांस भी पसंद नहीं था, या फिर ऐसा जिसे रोमांस तब तक पसंद था जब तक वो उसको मिलता नहीं था? गनीमत है एक १३ वां विकल्प भी था.. मैंने उस तेरहवें विकल्प,’कन्फ्यूज्ड’ . को टिक मारा और आगे बढ़ा

फिर भी ऐसे पल आते हैं जब मुझे लगता है कि शायद, कुल मिला कर मैं अलैंगिक- नहीं हूँ  और हर किसी को ऐसी अस्पष्टता और तरलता का विकल्प होना चाहिए  आपकी अपनी पहचान वैज्ञानिक सूत्रों में क्यों कसी जाए  भावनाएं बदल भी सकती हैं, ना? बदलती रहती है  “प्यार तो प्यार ही होता है” मेरे वामपंथी दोस्त, और उदार पंथी दोस्त भी अक्सर मुझे ये बात कह जाते हैं  मैं उनकी बात काटना नहीं चाहता, लेकिन प्यार हर एक के जीवन में एक सी जगह नहीं रखता, एक सा जूनून नहीं देता वो यह भी कहते हैं कि हर एक को बस ‘पता चल जाता है’ कि वो किसकी ओर  आकर्षित है, और किसकी ओर नहीं उस ही तरह जैसे विषमलैंगिक या समलैंगिक लोगों को पता चल जाता है कि उन्हें कौन और क्या पसंद है सुनने में तो, राजनितिक दृष्टिकोण  से भी, बिलकुल ठोस बात लगती है… उनकी बात तब काम आती है जब वही नार्मल लोग मुझे कहते हैं ‘कि तुम कोशिश ही नहीं करोगे तो पता कैसे चलेगा’ तब मैं उनकी पहले कही हुई बात से उनके इस सवाल का जवाब देता हूँ

पक्के विशवास की ओर बढ़ती दुनिया में मेरा अस्पष्ट तरीके से लैंगिकता को अपनाना हम सबको थोड़ा असहज सा कर देता है

मुझे लगता है कि अगर एक ओर पूरी तरह से अफलातूनी प्यार (प्लेटोनिक लव) है और दूसरी और सम्भोग..तो इन दोनों के बीच कामुक संभावनाओं का एक समंदर है किसी दोस्त की झप्पी में एक कामुकता और अंतरंगता है, किसी कंधे पर सर टेकने से जो सुकून मिलता है, उसमें कामुकता है, “किसी ख़ास’ के बगल में, अपने सारे कपडे पहने हुए, सवेरे जागने में तो वाकई आनंद है    हमें अपने को यूं काबिल बनाना है, कि इन सारे सुखों का आभास करें, बिना एक को ऊंचा, दूसरे के थोड़ा नीचे दर्ज़ा दिए किसी एक को ही ‘असली चीज़’ ना समझ कर अगर हमने बिना वर्गीकरण करे, इन सब का चयन किया, तो फिर प्यार करना असल मायनों में दुनिया को बदल डालने के काबिल हो जाएगा

मेरे एक दोस्त ने एक बार मुझे अचानक बाहों में भर कर झप्पी दी वो  अहसास याद आता और अगले कई हफ़्तों तक मेरा चेहरा समय समय पर एक खुशी की बेवक़ूफ़ सी मुस्कान के साथ खिल उठता एक और बार, उसी इंसान ने मुझे टेक्सट मैसेज (text message) भेजा.. मेरे कई महीने पहले भेजे एक मैसेज के जवाब में.. मैसेज पढ़ कर बस काम के बीचों बीच एक खुशी की बौछाड़ में बह गया था मैं शायद एक पॉइंट पर तो, दिन में सपने बुनते हुए मैंने ये भी कल्पना की थी कि हम दोनों एक दूसरे को चूम रहे हैं यूं लग रहा था कि अगले कई दिनों तक बॉलीवुड की तर्कहीन दीवानगी मुझमें समा जाएगी

पर मसला लम्बे समय तक नहीं टिका और मुझे भी उसके जाने से आराम ही मिला, मन में ये ख़याल रखते हुए, कि क्या पता, एक दिन ये संभावना फिर लौट आएगी- कुछ भी हो सकता है, नहीं? मुझे तब समझ में आया कि मैं भी प्रेम रोगी बन सकता था पर मैं उस रोग से अपना निवारण भी और आसानी से कर सकता था ये उतना जटिल मामला नहीं था जितना लोग जताते थे

सबसे बड़ी बात, अपने बारे में ये जानकारी मुझे सरलता से नहीं मिली, और जब मिली तो मेरे भाव भी सरल न थे ये सब जान के लगा, कि प्यार एक बीते हुए प्रेम से भरी याद का रूप ले सकता है, एक चॉकलेट डोनट खाने जितना मज़ेदार! और प्यार एक कविता के रस से भरी ट्रेजेडी का रूप भी ले सकता है.. कभी कभी यूं, कि जो पूरी तरह भुला दिया जाए

बंधनों के धागे

ये यादें मेरे मन में इसलिए नहीं टिकी हैं क्यूंकि मैं अब अपनी गलतियों से कुछ सीख गया हूँ और पीछे मुड़

कर अपने तौर तरीके बदलना चाहता हूँ बात कुछ यूं है- एक ओर सेक्स के प्रति मेरी उदासीनता लगभग बनी ही रही है पर साथ साथ मैं ये देख कर परेशान हूँ कि लोग किस बचपने से कामुकता के बारे में बात करते हैं

मेरे करीबी दोस्त अचरज में रहते हैं… मेरी खुद की ‘डेटिंग लाइफ’ तो ना के बराबर है, पर मैं हमेशा सेक्स, प्यार आदि के बारे में डिस्कशन करने के लिए तत्पर रहता हूँ  मैं अपनी दोस्तों के अचरज पर बिलकुल भी ध्यान नहीं देता पहली बात, एक भारतीय होने के नाते, दूसरों की ज़िंदगी में दखल देना मेरे लिए एकदम स्वाभाविक है दूसरी बात, जो आपको कन्फ्यूसिंग लग सकती है, पर दरअसल है नहीं … सेक्स की बातचीत की ओर एक सकारात्मक/ पॉजिटिव माहौल ( जिसे sex positive कहते हैं) में ही मैं अपनी सेक्स पे प्रति अपने अलगाव के बारे में खुलकर बात कर पाऊंगा सेक्स की बातचीत को लेकर ये असहजता के ख़त्म होने पर ही मैं सेक्स को लेकर अपनी असहजता पर बतिया पाऊंगा ये सच हम सब पर लागू होता है- चाहे हम वो हों जिन्हें यौन उत्पीड़न सहना पड़ा है, या फिर हम वो हों जो अपने अलैंगिक होने का गर्व से ऐलान करते हैं  वाकई अगर समाज में ऐसी बातचीतों में के खुलापन आ जाए, तो बड़ी राहत मिलेगी.  फिर सेक्स को लेकर मानो एक क्रांति आ जाएगी, और हम सब अपनी अपनी भावनाओं के बारे में खुल कर बात कर पाएंगे, अपनी सीमाओं और चाहतों पर भी हर घटना पर बातचीत करना संभव हो जाएगा और ऐसा करने से, शायद आगे बढ़ना ही संभव हो जाएगा

और हाँ, मैं वाकई आगे बढ़ना चाहता हूँ, क्यूंकि सेक्सुअल प्यार के अलावा, और भी खूबसूरत प्यार हैं जिनमें मैं शायद उलझना चाहूँ हाँ मेरे भी रिश्ते रहे हैं… ( उन्हें रिश्ते ही बुलाऊँ क्या? क्यों नहीं, रिश्ते ही थे वो उन रिश्तों ने मुझे आशा दी, सहारा दिया ( इमोशनल और हाँ, फिजिकल भी) ऐसे आदमी और औरत जो मेरी ज़िंदगी में तब आये हैं, जब मैं खौफ और चिंता में डूबा हुआ था, और उन्होंने मुझे उस दशा से बाहर निकाला मुझे सहारा दिया ताकि मैं अपने आप से, अपने शरीर से और सहज बन सकूं कभी कभी हमारे रिश्तों में खिंचाव बढ़ जाते थे, हमें  प्रेमियों जैसे जलन महसूस होती है या फिर हमें वो तड़प होती है जो प्यार में ठुकराए हुए पार्टनर को होती है कुछ और पलों में, मैं इतने काबिल हो पाया हूँ कि पीछे हट कर अपने इन साथियों को उनके मनमीत ढूंढने का मौक़ा दूँ

और कभी कभी मैं अपनी ज़रूरतों पर ध्यान दे पाया हूँ और उनके हिसाब से आगे बढ़ा या पीछे हटा हूँ, ये कम सोचते हुए कि इससे दूसरे को कितनी चोट पहुंचेगी या कि वो दुखी हो जाएगा

पर ऐसे मौकों में संभाल कर चलने का महत्त्व है कि कहीं हमसे कोई अति न हो जाए कभी कभी ऐसे सन्दर्भों में जहां मर्दानगी की जकड़ बहुत सख्त होती है, वहां कामुकता और वासना बड़े विकृत रूप ले लेते हैं जैसे कि अगर आपको लगे कि आप ठुकराए गए हो तो खुद आक्रामक हो जाना और अगर अंतरंगता या किसी के करीब आने की इच्छा है, तो केवल सेक्स के द्वारा उसे पूरा कर पाना

गौर करने की बात है, कि आजकल सेक्स से संदर्ब में जो बातें ‘कूल’ मानी जाती हैं, वो कुछ ऐसी ही हैं.. एक शरीर से दूसरे शरीर तक भटकते रहना जैसे किसी के बारे में कुछ जानने की इच्छा ही मर गयी हैकुछ यूं ‘कूल’ होने का दिखावा करना कि तुममें रुक कर सोचने की तबियत ही ख़त्म हो जाती है  और ऐसे में किसी के करीब आना हो तो, बस सेक्स का तरीका ही मिलता है

यानी इस सब से सुख कम मिलता है, और हिंसा ज़्यादा हो जाती है और अगर कोई थोड़ा सेक्स पॉजिटिव होना भी चाहे, तो उसके पास एक ही उपाय बचता है, कि वो दो कदम पीछे ले, और कम से कम लोगों को वापस लोगों के रूप में देख पाए, न कि केवल बदन के रूप में

मैं ये नहीं कहता कि सुख का सेवन गलत चीज़ है| लेकिन ये कहना चाहता हूँ कि  अगर एक ओर रात भर का रिश्ता- यानी ‘ हुक अप ‘ और दूसरी ओर रोमांस से भरी आकस्मिक मुलाक़ात…ये परस्पर विरोधी नहीं हैं ।  इन दोनों विकल्पों के बीच, किसी दूसरे के साथ में सुख पाने की कई अलग अलग सम्भावनाये हैं ये किसी को करीब से जानने से मिल सकता है, बिना उस रिश्ते को कोई भी शारीरिक रूप दिए… एक ऐसा आनंद पाकर, जिसमें कोइ शारीरिकता न हो

हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जो हमें कहती है कि प्यार में क्रांतिकारी होने के लिए हमें बिन रिश्ते के शारीरक संबंधों को निभाना सीखना पडेगासो मेरा कहना है कि क्रान्ति में हमें और भी आगे बढ़ना होगा, और बढ़ने के लिए, सेक्सुअल से थोड़ा परे हटना भी पडेगा।   केवल चिमटने को भी क्रांतिकारी माना जा सकता है.. यानी बंधन के सारे धागों को काटना नहीं, बल्कि नए किस्म के धागों से बाँधना और बंधना

हम में से कुछ लोगों के लिए, सेक्सुअल के परे रहना वैकल्पिक नहीं है, हमारे लिए ये सहजता का रास्ता है लेकिन ये रास्ता औरों को भी एक सोचने/ कल्पना करने का अवसर दे सकता है, कि हम कैसे अपनी कामुकता का दुनिया में और नैतिक और प्यार भरे तरीकों से संचालन करें

 

ईशान २२ साल के हैं और आजकल अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर स्टडीज इन  जेंडर एंड सेक्सुअलिटी में काम करता है

 

अनुवाद: हंसा थपलियाल

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7 thoughts on “सेक्स का वाकई में समर्थन करने के लिए, हमें दो कदम पीछे हटना होगा”

  1. Ishaan,
    I could quote a lot in this article and say, “Hey I loved this”, “I adored that” etc. Etc. But one thing that I would like to tell you is that this writing made me feel heard.

    For a long time now I have felt like an odd person who in incapable of feeling because I couldn’t make sense of what the world was talking about and the way they were talking about when it came to love, desire, sex etc. Rationally, I knew I couldn’t be the only person who felt like that but self-doubt is rarely rational.
    Your words have woven a blanket of comfort and warmth for me. The relief feeling heard is insurmountable.

    Be well.
    There’s infinite love around and within us. Here’s to a shared hope of radical love.

  2. this was really what i needed to read right now.. a year ago i was so depressed, thinking id never meet someone and feel all those feelings without the overwhelming obligations. throughout the next year was a series of self discoveries, entering my first “relationship” and pushing myself to become more comfortable getting myself out there, emotionally and physically.

    it’s been a truly scary journey and knowing now that the relationship was short term (by my own choosing, but still) i feel so confused if i can fall back on my old label of asexuality when im no longer.. who i was 100% before. everything i did was consensual and in that regard i have no regrets but it feels so much simpler to say im asexual and know what i want before having sex than after.

    now, to claim that label feels disingenuous or like im a jaded lover which isn’t true. in fact i still really do crave a partner some day but in all the ways you said and more, someone to cuddle, someone to grow old with and be the closest of companions.

    i don’t know where i stand with myself. i feel this pull back and forth between feeling repulsed by myself and my actions and wanting to accept them with pride as choices that show the person ive grown into, and a truly sex positive member of society like you talked about. it just doesn’t quite feel like me though. i know i can never take it back but i do wonder now if it was a mistake? or just a choice that made me realize i don’t want to make it again?

    was i making these choices because i truly wanted to or because deep down i wanted to prove myself wrong? that im “normal” and if you just do all these things that are normal relationship-y things eventually you’ll feel comfortable and natural? did i just play a different version of myself? then waking back up now from that reality makes me feel dirty. i don’t know where to go from here on my (long) path to self acceptance and love.

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