फूलों जैसे ज़ेवर - पुरुष के शरीर और महिलाओं की चाह - Agents of Ishq

फूलों जैसे ज़ेवर – पुरुष के शरीर और महिलाओं की चाह

लेख एवं चित्र एलिसा ब्रून द्वारा

एक कलाकार द्वारा “वस्त्रहिन” पुरुष-शरीर के मोहित कर देनेवाले चित्र और एक पुरुष-प्रधान समाज/संस्कृति में, अचंभित करती, लिंग की अनदेखी पर, उनका हृदय स्पर्शी लेख।

मेरी माँ, मेरे पिता के गुप्तांगों से नफ़रत करती थीं। वो उन्हें कभी देखना ही नहीं चाहती थीं और अंतरवस्त्रों में भी उन्हें उनका शरीर घृणित लगता था। यदि कभी वे उन्हें गुसलखाने में नंगे बदन देख लेती तो उनपर चिल्लाने लगती थीं, जिस कारण पिता जी को नहाने के तुरंत बाद ही कपड़े पहनने पड़ते थे। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि उनके आत्मीय क्षणों में भी, माँ का रवैया यही होता था। वो बस उन्हें सहन करती थीं – कि बस उन्हें वो करने दो “जो उन्हें करना ही है”-किन्तु वे कुछ भी नहीं देखना चाहती थीं। चालीस साल की शादी में, उन्होंने उस लिंग को कभी देखा ही नहीं जिसने उनके अंदर समाकर उन्हें 3 बच्चे दिये थे। घृणित से भी ज़्यादा,उन्हें यौन कुरूप, मूर्ख और बेमतलब लगता था। उनके दिमाग में लिंग, कुदरत की एक बहुत बड़ी ग़लती थी, एक आवश्यक पाप, एक बहुत ख़ूबसूरत पोशाक में सिला बेतुका बटन था । उन्होंने शिश्न को ना कभी देखा, ना कभी हाथ लगाया और बेशक़, चूमा तो कभी-भी नहीं। मेरे पिता को अकेले ही इस मिलन की तैयारी करनी होती थी, अकेले ही शुरुआत करनी होती थी और अकेले ही इसे पूर्ण करना होता था। यूँ भी कह सकते हैं: अकेले ही, प्रेम करना।

सौभाग्य से मुझे यह सोच विरासत में नहीं मिली , और इसकी शिक्षा भी किसी भी प्रकार मुझे नहीं दी गयी। मुझे हमेशा से, जहाँ तक मुझे याद है, पुरुषों के लिंग को देखना अच्छा लगता था। पहले पहल, जिज्ञासा से, फिर उत्साहित होने के लिये, किन्तु साथ ही कलात्मक भावनाओं के लिए भी, जो मेरे अंदर उसके द्वारा जागती थीं।  मेरे सभी रिश्तों में, प्रेम के क्षणों में, मैंने भरपूर समय अपने साथी के लिंग को प्यार से देखने, उसकी तारीफ़ करने, उसके बारे में मीठी-मीठी बातें करने में दिया है। मुझे लगता है शरीर के बाकी हिस्सों से अलग, लिंग हमेशा ख़ूबसूरत लगता है। शायद क्योंकि वही एक है, जो सदा सच्चा रहता है। अपने मालिक की असल मंशा से दूर, वो कभी-भी अलग, जुदा, पाखंड या छल करता नहीं नज़र आता। यह एक तरह का शुद्ध जीव-विज्ञान और भावनाओं से जुड़ा सत्य है। उत्साहित अवस्था में या शिथिल अवस्था, इसके बारे में कुछ प्रचुरता में है, जो दिल छू लेता है। आदमी का लिंग उनके शरीर का सबसे गर्वित एवं नाज़ुक हिस्सा होता है, यूँ भी कह सकते हैं कि उसके पूरे व्यक्तित्व की …कुछ शब्दों में व्याख्या… या किसी कविता की अंतिम पंक्तियाँं… जिसकी वजह से ही वह अपने पूरे अस्तित्व को साकार कर पाती है।

पुरुष के लिए उसके लिंग की दृश्यता ही सबसे बड़ी मुश्किल है। उसकी जो भी वास्तविक स्तिथी है, आप उससे मुकर नहीं सकते। वो वहीं खड़ा रहेगा!, लटका हुआ! बल्कि आकार बढ़ा भी सकता है।बल्कि, जानवरों में भी यह स्तिथी छुप जाती है -उनके खड़े बालों और चार पैरों के बीच।

 

परंतु खड़े रहने की अवस्था, यदि मुझसे पूछे तो, आदमी के शरीर की नुमाईश करने के उद्देश्य से बनाया गयी है।

एक  बिना कपड़ों के आदमी के शरीर पर यह ही सबसे ज़्यादा दिखता है: देखो- यह रहा मेरा लिंग। और लिंग के पीछे है इस दुनिया की सबसे नरम वस्तु, अंडकोष थैली , इश्वरीय गेंदे, यानी पागल कर-देनेवाले वीर्य-कोष । खुशीदेने वाली यह पूरी टोली एक तो इतनी आसानी से दिखाई पड़ती है और फिर भी हमने हज़ारों सालों से इनसे आँखें फेर रखी हैं। जो पूरी तरह से एक मूर्खता है।

मैं केवल एक चीज़ कहती हूँ: कि तुम पुरुष के उन ज़ेवरों को ठीक वैसे ही देखों जैसे फूलों को देखते हो।

और उन्नत शिश्न?  अगर ये उस को संबोधित करता है  जिसकी यह मंशा रखते हैं, या जो इसकी मंशा रखते है, तो लिंग की यह स्तिथी, धरती पर स्वर्ग है। इसके हमें फ़ोटो खींचने चाहिए, चित्र बनाने चाहिए, फिल्में बनानी चाहिए, इस पर खूब लिखा जाना चाहिए, इसके गीत गाने चाहिए, इसकी मूर्तियाँ बनानी चाहिए….क्यों हमें यह सब नहीं देखने को मिलता ( अश्लील सिनेमा को छोड़कर, जो इसकी निषेधता के अंधेर पक्ष का और मज़बूत गठन करते हैं।) हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जिसे पुरुष-प्रधान  कहा जाता है, (और यह है भी) लेकिन आप एक वास्तविक पुरुष तत्व कहाँ देख पातेे हैं? कहीं नहीं, कुछ नहीं, नाडा, लिंग की प्रस्तुति “लिंग” की तरह, एक अजेय प्रतीक के तौर पर नहीं, बल्कि एक कोमल मानव शरीर के हिस्सेे की तरह ? नहीं, कहीं नहीं दिखाई देती। प्राचीन यूनानी, एशियाई, अफ्रीकी इसे दिखा सकते थे… लेकिन हम तथाकथित “आधुनिक” लोग ?

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मैं एक ऐसे समाज का सपना देखती हूँ, जहाँ महिलाऐं चुनाव कर रही हैं और पुरुष के नग्न चित्र पत्रिकाओं में फैले पड़े हैं … लेकिन हम इस आज़ादी के सपने से दूर हैं। पहले ही, एक साधारण लिंग (यानी आराम की स्तिथि में, नरम और हानिरहित लिंग) की मौजूदगी चार पत्तों की घास से भी ज़्यादा मुश्किल है। तो उन्नत लिंग के बारे में तो भूल ही जाइए ! सिनेमा उन्नत/खड़े/उत्तेजित लिंग से किसी छूत की बीमारी का सा व्यवहार करता, दूर ही रहता है, कि कहीं इसकी वजह से फ़िल्म को एक्स-रेटेड नहीं मान लिया जाए, और उसे कामुक होने की शर्मनाक केटेगरी में ना फेंक दिया जाए। जिसे (कामुकता को) “बिना बात” ही ,बीमारी मान लिया गया है। यहाँ तक कि चीपेंडेले स्ट्रिपर्स और अन्य लोग जो यौन उत्तेजना के ज़रिये ही अपने काम करते हैं, लिंग पर आते ही रुक जाते हैं: आप मेरे पूरे शरीर को कामोत्तेजक ठहरा सकते हैं । हाँ! मेरे तलवों से मेरी बाइकर कैप तक, सबकुछ! लेकिन मेरी सुबह और शाम की महिमा को नहीं! मेरे असल अस्तित्व को नहीं। यह एक अजीब और असंतुष्ट दुनिया है, जहाँ महिलाओं को मध्य कृति को छोड़, हर जगह जाने की आज़ादी है। जहाँ आदमी ने इस विचार को अच्छी तरह मान लिया है कि उन्नत लिंग एक शर्मिंदगी, एक अपराध है और इसका अभाव, एक असफलता है?

यह एक टिप्पणी रहित निषेधता है, कि लिंग का उन्नत होना दुख की बात है, कंपा देनेवाला सत्य है, भ्रमित आकांशा है और अंततः भ्रष्ट चेष्टा है: दमित इच्छाओं और अश्लीलता के बीच, जैसे कुछ है ही नहीं। महिलायें नैतिकत-सिद्धान्तों में बंधी है, पुरुषों को कोई कारण बताये बिना ही शर्मिंदा किया जाता है, तो हमें यौन-रहित यौन करने के तरीकों को खोजना पड़ता है।

मैं पुरूष के शरीर के चित्र बनाती हूँ, उस शरीर की सुंदरता के चित्र, या यूँ कह लीजिये, मैं सेक्स की ख़ुबसूरती के चित्र बनाती हूँ। मैं इन चित्रों के द्वारा प्यार को महसूस करती हूँ, प्यार करना  महसूस करती हूँ और प्यार ज़ाहिर करती हूँI

यदि कोई उन्नत लिंग के साथ सहज है (किसी भी जगह/स्तर पर) और उसके विश्राम/शांति की स्तिथी के साथ भी सहज है, तो वह जीवन के साथ सहज हैं। इस सहजता के बिना, शायद हमें जीवन दर्शन की बात ही नहीं करनी चाहिए।

एलिसा ब्रून, एक लेखिका और पत्रकार हैं।आपको विज्ञान में डॉक्टरेट प्राप्त है। आप “द सीक्रेट ऑफ द विमेन: ए जर्नी टू द हार्ट ऑफ फीमेल ओर्गास्म एंड प्लेजर” की लेखिका भी हैं।

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1 thought on “फूलों जैसे ज़ेवर – पुरुष के शरीर और महिलाओं की चाह”

  1. very well expressed. always had those concerns but never or was not sure of expressing it. fear was being misunderstood always lingered. at the same time a woman’s approach and ‘use’ of it was limited to the act and not calling it ‘beautiful’ any time. this perhaps could be the reason for firsttime males when indulging in the act of sex needed some sort of an intoxicant to over come shyness or guilt. beautifull explained. rather very artistically painted as the drawings. correction-very poetic.

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