स्वाति भट्टाचार्य द्वारा
अनुवाद: नेहा मिश्रा
आप कैसे पिता हो, ये इस बात पर निर्भर करता है, कि आप किस तरह के आदमी बनने को तैयार हो। पुराने ‘मेरे पापा सबसे स्ट्रांग ‘ टाइप के ढांचों से कितने दूर जाने तो तैयार हो ।
आज, इस ‘फादर्स डे स्पेशल ‘ में, दो औरतें उन आदमियों को याद करके लिखती हैं, जो उनके पिता थे ।
तो ये रहा स्वाति भट्टाचार्य की लिखी सुन्दर याद । दूसरा लेख अंजलि अरोन्डेरकर द्वारा लिखित है, उसका नाम है ” मुझे रामा कहो : बाबा को फिरसे, ध्यान से देखते हुए “। उसका लिंक यहां है ।
मेरे बाबा की सबसे खास बात ये थी कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से, जान कर अपने को बहुत स्पेशल लगने या दिखने से रोका। दरअसल, वो उन पलों को चुन लिया करते थे जब वो ‘खास’ होना चाहते थे। बाकी समय बैकग्राउंड में रहकर ही खुश थे, रेडियो पर कोई क्रिकेट मैच सुनते हुए, या टेलीविज़न के पास जमकर ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के मैच का रिपीट देखते हुए। बाबा के लिए अड्डा या गेट टूगेदर (get-together) का मतलब था एक साथ बैठकर चुपचाप टेलीविज़न पे कोई प्रोग्राम देखना।
एकलौती होने की वजह से, मेरे दोनों हाथों में लड्डू थे। यानी माँ–बाबा दोनों की दुनिया मेरे ही चारों ओर घूमती थी। लेकिन हाँ, जितना माँ हमेशा मेरी तरफ रहती थी, पापा नहीं रहते। माँ, अपनी हरी आंखों, नाजुक–सी सुंदरता और बेमिसाल तेज़ी के साथ, सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेती थी। लेकिन बाबा ढीले–ढाले से थे। एक जुमला जो वो कई बार दोहराते थे, वो था, “मिले तो ओझा, ना मिले तो रोज़ा।” बाबा ने पूरी जिंदगी एक ही कंपनी में काम किया– आई.एन.एस (INS)। कई बार तो उनको प्रमोशन भी नहीं दिया गया। लेकिन एक बार जब वो घर आ जाते थे, ये सब उनके लिए कुछ मायने नहीं रखता था। मेरे चाचा–चाची, सब उनसे ज्यादा बेहतर कमा रहे थे, पर इससे उनको कभी कोई फर्क नहीं पड़ा।
वो हमारा घर था जहां पूरे परिवार का एक साथ लंच हुआ करता था। और मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मेरे पास मेरे अमीर चचेरे भाईयों से कुछ कम सुविधाएं है। क्योंकि मेरे माँ–बाबा ने मुझे यही सिखाकर बड़ा किया कि हमारा कम भी दरअसल बहुत है। पूरी दुनिया भर से, परिवार के लोग और हमारे दोस्त हमसे मिलने आया करते थे, ये अपने आप में ही हमें खास बना जाता था।
बाबा के साथ मेरा रिश्ता वैसा था जैसा भाई–बहनों के बीच रहता है। कभी वो मेरे मोगलाई परांठे का आखिरी बाइट लेने के लिए मेरे पीछे–पीछे आते थे, तो कभी मेरे साथ लूची (पूरी) खाने की प्रतियोगिता करते थे, और कभी हमारी उस 2-इन -1 टेप रिकॉर्डर को लेकर, मुझसे लड़ाई भी करते थे। एक बार जब मैं घर पहुंची तो देखा कि मेरे गानों के मुझसे पर कड़कड़ाता हुआ रेडियो कमेंट्री रिकॉर्ड कियागया था। ये करने वाला कोई और नहीं बल्कि बाबा ही थे। “सॉरी यार यार! पर क्या करता! इतना शानदार मैच था कि मुझे उसका विश्लेषण तो करना ही था ना। और फिर तुम्हारे सारे अंग्रेजी गाने एक जैसे ही तो लगते हैं। पर मैच, वो तो अलग है ना!” मैं गुस्से से पागल हो जाती थी, और तब बहलाने के लिए वो मुझे अपने मनपसंद डिशेज़ के नाम से पुकारने लगते थे– “सॉरी मेरी कोशा मंगशो! माफ़ करना मेरी टंगड़ी कबाब!”
मैं माँ से शिकायत करती थी। फिर माँ बाबा को धमकाया करती थी कि हम दोनों उन्हें छोड़कर चले जायेंगे और फिर वो आराम से अपने क्रिकेट के साथ रह सकते हैं। बस, बाबा बिना टाइम वेस्ट किये दूसरे कमरे में चले जाया करते थे और फिर उनके दरवाज़े से आती क्रिकेट कमेंट्री की आवाज से हवा भर जाया करती थी।
मेरी 8वीं क्लास के फाइनल एग्जाम के बाद, 2-इन -1 को लेकर हमारे झगड़े रुक गए। क्योंकि बाबा ने मुझे सोनी वॉकमैन दिलवा दिया।
मैंने परीक्षा पास कर ली थी और 9वीं में जा चुकी थी। पर क्योंकि मैं मैथ्स के पेपर में फेल हो गई थी, इसलिए, स्कूल ने मेरे नाम के आगे “वीक पास” लिख दिया था। मुझे बहुत अपमानित सा महसूस हुआ। लेकिन बाबा! उन्हें तो जैसे इस शब्द से प्यार ही हो गया। जैसे कि मैंने कोई वीरता वाला काम किया हो, किसी के जबड़े में हाथ डालकर ‘पास‘ को खींच निकाला हो।
जब उन्होंने मुझे वो वॉकमैन दिया और बधाई दी, तो मैंने उनसे पूछा, “बाबा, आपने मुझे इतना महंगा गिफ्ट क्यों दिया?” तो उन्होंने एक प्यारी सी मुस्कान के साथ कहा, “क्योंकि ‘वीक पास‘ में कुछ खास है। पास से भी बेहतर है ये यार!” कभी–कभी वो दुर्गा पूजा पंडाल में भी बंगला में चिल्ला उठते, “बुल्लू वीक पास कोरचे, लेकिन पास कोरचे।” मुझे बहुत गुस्सा आता था। लेकिन बाद में अहसास हुआ कि वो सचमुच ही प्राउड थे। उसके बाद, ‘वीक पास‘ जैसे उनकी रोजमर्रा की बोलचाल का एक हिस्सा ही बन गया। मेरी ड्रेस कैसी है? वीक पास। माछेर झाल पसंद आया? वीक पास।
मेरे बाबा, खराब मौसम में साथ देने वाले दोस्त थे। उनसे अच्छा बाबा शायद किसी भी लड़की के पास ना हो। 10वीं बोर्ड के मैथ्स एग्जाम से पहले जो स्टडी लीव मिली थी, उसमें वो मुझे “कर्ज़” मूवी दिखाने ले गए। जिंदगी की हर परीक्षा में बैठने से एक रात पहले बाबा ने मुझे ट्रीट दी है। और जब भी मैंने कुछ बड़ा हासिल किया, जैसे मिरांडा हाउस या आई.आई.एम.सी (IIMC) में एडमिशन, या जे.डब्ल्यू.टी (JWT) में मेरी पहली जॉब– बाबा ने तब कभी भी ट्रीट नहीं दी। वो बस उन रातों के लिए होती थीं जब मैं अकेली होती थी,और डरी हुई।
’94 की गर्मियों में मेरा पहला हार्ट–ब्रेक हुआ था। मैंने बाबा को ऑफिस में फोन किया और बताया कि मेरा ब्रेक–अप हो गया। थोड़ी देर तो वो चुप रहे। फिर पूछा, “आज रात चिंगरी खाओगी?” और उस रात आज तक का सबसे बड़ा झींगा मेरी डिनर प्लेट पर था। ऑफिस के बाद बाबा मेरे ब्रेक–अप डिनर का इंतज़ाम करने आई.एन.ए (INA) मार्केट गए थे।
मैं दिल्ली में पली–बढ़ी थी, जहाँ हर बच्चे से पूछा जाता है कि उसके पापा क्या करते हैं? क्योंकि वहां एक आदमी को उसी से मापा जाता है।
मुझे कहना चाहिए था कि मेरे बाबा मेरे आस पास सुरक्षा की वो कुशन लगाते हैं जिससे मुझे गिरने पर भी चोट ना लगे। मेरे बाबा मुझसे लड़ते हैं, अगर मैं अपने दोस्तों को लिविंग रूम से निकालकर अपने कमरे में ले जाती हूँ। मेरे बाबा ने मुझे पहली सिगरेट ट्राय करने के लिए दी थी। जब मेरे दोस्त घर आते थे, तो बाबा ही हमारे लिए जिन और टॉनिक (ड्रिंक्स) बनाते थे। बाबा ने कभी भी मुझे किचन में नहीं जाने दिया। उन्हें डर था मैं अपने आप को जला ना लूँ। जब मैं 28 साल की हुई, मेरे बाबा नाखुश तो थे, लेकिन उन्होंने माँ को मेरी शादी अरेंज करने दी। पर उन्होंने माँ को सलाह भी दी कि वो सारा पैसा मेरी शादी पर खर्च न करे दें, क्योंकि “बुल्लू का पता नहीं, हो सकता है बिना कोई स्कोर बनाये पवेलियन में वापस आ जाये।“
बाबा ने कभी भी अपने जेंडर को खुद पर हुक्म नहीं चलाने दिया। उनका जेंडर इस बात का निर्णय नहीं लेता था कि वो मुझसे कैसे प्यार जताएं, मुझे कितनी आज़ादी दें – या लोग उन्हें कैसे और क्यों प्यार करें।
2003 के नवंबर में कैंसर से मेरे बाबा की मृत्यु हो गई। जब हमें पता चला, वो कैंसर के फाइनल स्टेज में थे। जब हमने उन्हें बताया तो उन्होंने कहा, “67 नॉट आउट कोई खराब स्कोर तो नहीं है बुल्लू।“
51 साल की स्वाति भट्टाचार्य, अंग्शुमान भट्टाचार्य की एकमात्र संतान हैं। खाना बनाने में तो वो वीक पास हैं, पर एडवरटाइजिंग में स्ट्रांग पास हैं।
Dad’s are so special. It reminds me of my dad- my first drink with him, permission to go out late night, no going to kitchen, having hoard of boys at home without any label attached to it. He was my best friend. Miss him