मैं वो देवियाँ बनाती हूँ जिन्हें मैं देखना चाहती हूँ - Agents of Ishq

मैं वो देवियाँ बनाती हूँ जिन्हें मैं देखना चाहती हूँ

ब्रुकलिन में बसी कलाकार और मूर्तिकार अपनी ऐसी ६ कृतियों की बात करती हैं, जो उनके लिए बहुत मायने रखती हैं l

लेखिका:  जयश्री अभिचंदानी
अनुवाद : हंसा थपलियाल

प्यार मेरे काम का संचालन करता है । आधुनिक पश्चिमी कला की दुनिया में, प्यार जैसे एक अनुचित सी चीज़ है, जिसपर बात ही नहीं की जाती। पर देखा जाए तो वो प्यार ही है जो हमें इस दुनिया में रहने को, कुछ बनाने को, दुनिया से उलझने को प्रोत्साहित करता है ।

भारत में हिंदुत्व और बीजेपी के द्वारा, और यहां अमरीका में, जहां मैं रहती हूँ, गोरे लोगों की प्रधानता को मानने वाले रिपब्लिकन द्वारा कुछ लोगों और बातों को भिन्न मान कर दरकिनारे किया जाता है । मैं उन्हीं लोगों और बातों के लिए अपने प्यार का इज़हार अपने काम के ज़रिये करती हूँ । तो अगर कुछ लोग दुनिया में और नफरत फैलाने के लिए बेताब हैं, तो मैं दुनिया में बहुत सारा प्यार फैलाने की कोशिश करती हूँ। उन्हीं लोगों के लिए प्यार जिन्हें इन लोगों ने तिरस्कारा है- मेरे क्वीर दोस्त, ट्रांस दोस्त, दलित, मुसलमान दोस्त, ऐसे महिलावादी दोस्त जो वो काम कर रही हैं जो इन दक्षिण पंथी कट्टरवादियों की संकुचित सोच से बिलकुल विपरीत है । मैं अपने काम के द्वारा क्या कर सकती हूँ ? ऐसी चीज़ें बना सकती हूँ जो इस नफरत को झुठलाए ।

एक कलाकार होने के नाते और कला का चयन करने के नाते भी, मुझपर उन कृतियों का सबसे ज़्यादा असर होता है, जो मेरे दिल को छू जाती हैं । इसलिए कोई काम करते वक्त, मैं अक्सर ये समझने की कोशिश करती हूँ कि मेरी उस वक्त फीलिंग क्या हैं, वो क्रोध का भाव हो सकता है, या वासना या प्रेम, या कोई और भावना.. मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं उस भावना को एक्सप्रेस करूँ … या पेंटिंग के ज़रिये , या मूर्तीकारी, या फिर मेरे क्यूरेटर के काम के ज़रिये ( क्यूरेटर – ऐसा व्यक्ति जो कला कृतियाँ चुनता है और उन्हें प्रदर्शन के लिए एक सन्दर्भ में बिठाता है) । यहां मैं अपने ऐसे ६ कृतियाँ दिखा रहीं हूँ, जो मैंने यूं बनाई हैं, और जो मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं ।

ममज़ हॉलिडे (माँ की छुट्टी) २०१७

मैंने ये कृति उन दिनों बनायी जब मेरा बच्चा बाहर था! इसमें एक औरत अकेली, एकांत का आनंद ले रही है, एकांत में आज़ादी के अहसास का मज़ा ले रही है ! खिड़की खुली हुई है, और परदे हवा में उड़ रहे हैं, और वो आराम से अपनी किताब पढ़ रही है, गांजा पी रही है, आइस क्रीम खा रही है । ९० की दशक में भारतीय आदिवासियों द्वारा बनाये हुए ढोकरा से बने पढ़ती हुई औरतों के छोटे पुतले मिलते थे । एक कृति में एक औरत एक चारपाई पर लेटी हुई दिखाई गयी थी, हाथ में किताब लिए जिसे वो पढ़ रही थी ।मेरी कृति इन पुतलों पर आधारित है ।

मुझे उन पुतलों में जो बात बेहद पसंद थी, वो ये थी कि उनमें आनंद, कामुकता, अपने शरीर का ज्ञान, उसकी सेक्सुअलिटी , सब मिले बसे थे । मेरे अनुसार, मेरी कृति भी इन सब गुणों को अपने में समाये है- देखो उसके पाँव कितने आराम से फैले हैं, भीनी हवा हर उस जगह चल रही है, जहां वो जाना चाहती है! इससे उस बेशर्मी की फीलिंग आती है जो एकांत में, अपने बदन के साथ, निस्संकोच , आराम से उन सारे सुखों का लुत्फ़ लेते हुए आपकी बॉडी आपको दे सकती है ।

होली फॅमिली/Holy Family (बायीं ओर ) और स्वाग/Swag ( दायीं ओर), २०१७

होली फॅमिली कृति यूं बनायी गयी कि मुझे अपनी उन समलैंगिक सहेलियों से बेहद प्यार हैं, जिन्होंने आपस में शादी की, और साथ बच्चे पाले । उनके ज़रिये मैंने मातृत्व और अंतरंगता के ऐसे उदाहरण देखे, जो पितृसत्ता ( patriarchy) से जुड़े नहीं थे।

मुझे लगा कि होली फॅमिली यानी पावन परिवार को एक नए सिरे से दिखाना ज़रूरी था, खासकर हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में । मैंने अपनी ज़िंदगी में धर्म को खो दिया है, और शायद अपने काम के ज़रिये मैं उसे वापस खोज रही हूँ।

मुझे लगा कि अक्सर दिखते राम सीता, विष्णु लक्ष्मी या राधा कृष्ण के जोड़ों की जगह हम इन दोनों को रखेंगे । और मुझे ये भी लगा कि ये दिखा पाना कि ये दोनों हर तरह से एक दूसरे के कितने करीब हैं, बहुत ज़रूरी है । ये दोनों एक दूसरे के इतने करीब हैं, एक दूसरे को चूमने ही वाले हैं, लेकिन साथ साथ, अपने हाथों में इन्होने अपने बच्चों को भी पकड़ा हुआ है । यानी एक ही कृति में प्रेम, कामुकता और मातृत्व साथ में ताल मेल के साथ बसे हैं । वो बच्चा जिसका सर कमल के जैसा है, वो ख्याल मुझे इस लिए आया, क्यूंकि मेरे कई दोस्तों ने बच्चे ना पैदा करने का निश्चय किया है, और मुझे यूं लगता है कि उन्होंने और अपना वो प्रेम अपने काम पर न्योछावर किया है, वैसे ही जैसे कोई अपने बच्चे को पालता है ।यानी वो काम उनका बच्चा ही है ।

मेरी दूसरी मूर्ती किरण गाँधी पर आधारित है.।किरण गांधी ने उस समय लंदन में मैराथन भागने का निर्णय लिया जब उसका महीना / पीरियड चालू था । उसने अपने मासिक रक्त को खुल कर बहने दिया । मैं उससे बहुत प्रेरित हुई, और मैंने उसे स्वाग (swag- यानी ‘कूल’) का नाम दिया.. उसके रुतबे और कॉन्फिडेंस को देखते हुए, जिनसे दुनिया भर की औरतों को कमाल की खुशी मिली। बड़ा दम है यार उसमें, ये कर पाने को ।

मैं वो देवियाँ बनाती हूँ जिन्हें में देखना चाहती हूँ। हिन्दू धर्म को त्यागने से पहले, एक लम्बे समय तक मेरा उससे एक गहन रिश्ता रहा था । सच्चाई तो ये है कि मैं हर बार इस बात से फ़्रस्ट्राटे हो जाती थी कि मंदिरों में (अमरीका में तो ऐसा ही है) कोई औरत पुरोहित नहीं थी । हम कभी गर्भ गृह में जा ही नहीं सकते। हमेशा एक आदमी ही पुरोहित होता है भगवान् और हमारे बीच। और केरल में जो हो रहा है, उससे तो मैं इतना परेशान हो जाती हूँ, कि हम सब के लिए ये नई देवियाँ बनाना एक ज़रुरत बन जाती है । सच में धर्म को लेकर मेरा गुस्सा मुझे इन मूर्तियों को बनाने के लिए बार बार उकसाता है। नारीत्व का ये रूप रचने को । एक तरह से मैं एक ‘विच’- एक डायन- बन जाती हूँ। (लेखिका कविता दास ने मेरे काम के बारे में कहा है कि इसमें स्त्रीवादी डायनपने का ऐलान है!” और मैं ये पढ़कर बहुत खुश हुई ।) क्यूंकि सच में, मैं हर किस्म के धार्मिक रूढ़िवाद से थक चुकी हूँ । मैंने ठान ली है की मैं जितनी हो सके, उतनी सारी प्रचंड, नंगी, सब कुछ उलट देने वालीं, मुखर देवियाँ बनाऊंगी ।

साड़ी पहने दो लड़के, २०१८

कितनी सुन्दर जोड़ी है, मुहम्मद अली और अमर, ये ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं । समलैंगिक रानियां, जोरशोर से सजने धजने के शौक़ीन । मैं कभी इनसे मिली नहीं। पर ये इस कदर फैशन का ख्याल करते हैं, और इनका खाने का एक ट्रक है, और ये अदाकार हैं, और ये इतने लज़ीज़ काम करते हैं और मैं इनसे अनगिनत रूप में लगातार प्रेरित होती हूँ कि बस! मैंने सोचा मैं इनकी मूर्ती बनाऊंगी।ये मूर्ति इन क्वीर सांवले मुस्सलमान लड़कों और इनके काम के प्रति मेरे प्रेम का इज़हार था, इनका जश्न मनाते हुए, ये मूर्ती उनको एक ख़ास स्थान दे रही थी।

मेरे लिए क्वीर होना जीवन जीने का एक तरीका भी है और एक फलसफा भी। मैं क्वीरनेस को कुछ यूं परिभाषित करती हूँ: ये एक प्यार करने की आज़ादी है। उन सभी से जिन्हें आप प्यार करते हैं। आपका प्यार उनके जेंडर पर निर्भर नहीं होता ।आपका प्यार दुनिया में केवल विषमलैंगिक सोच को सबसे सही सोच मानकर नहीं चलता।

मैं अपने को पनसेक्सुअल मानती हूँ, यानी मैं लोगों को, वो जो भी हैं, उसके लिए प्यार करती हूँ।मेरे पहले बॉयफ्रेंड भी रहे हैं, गर्लफ्रेंड भी रही हैं । आज की तारीख में मैंने एक आदमी से शादी ज़रूर की है, लेकिन इससे मेरा अतीत या वो जो मैं रह चुकी हूँ.. झुठला नहीं जाता । मेरा यूं शादी करना उस समुदाय को भी नहीं झुठलाता जिनके लोगों के साथ मैं बहुत लम्बे समय से जुडी हूँ ।आज की तारीख में मुझे वो सारी ख़ास सुविधाएं उपलब्ध हैं जो आपको सिस्जेण्डर ( जब आपकी आज की जेंडर पहचान उस पहचान से मेल खाती है जो आपको आपके जन्म पर दी गयी थी) शादी शुदा औरत होने से मिलती है।पर मैं ज़िन्दगी भर क्वीरनेस के बीच रही हूँ, मैं खुद क्वीर हूँ, ये मेरे काम का हिस्सा है और वो मेरे लिए बहुत ज़रूरी है ।

(- बाएं तरफ) बिफोर काली  (यानी, काली के पहले), २०१७

इस मूर्ती का मकसद दृष्टि के उस आनंद को ढूंढ पाना है जिसे मैं खुद ढूंढ़ती हूँ । यूं तो मुझे पोर्न में ख़ास दिलचस्पी नहीं है- अक्सर मुझे वो उबाऊ, असहज और घिनौना लगता है, और उसको देख कर खुद कामुक हो जाना मेरे लिए तो मुश्किल ही है। पर मेरी कामुक कल्पनाएं हमेशा क्वीर ही होती हैं। और अगर आप पोर्न में दर्शायी औरतों को देखें, तो पता चलेगा कि वो केवल आदमियों की नज़र के चयन के लिए बनायी गयीं हैं, न कि औरतों की नज़रों को लुभाने के लिए। ये कृति एक पेड्रो अल्मोडोवर ( Pedro Almodovar- स्पेन के एक विख्यात फिल्म डायरेक्टर) की फिल्म के एक सीन पर आधारित है। उस सीन में एक ड्रैग क्वीन और एक औरत का साथ है, मुझे वो सीन बहुत ही कामुक, सेक्सी और सुन्दर लगा था । उस सीन को देख कर मैं ये सोचने बैठ गयी थी कि आदमियों के बगैर औरत का कामानन्द कैसा दिखेगा। फिर मैंने सोचा कि एक खम्बा बनाऊंगी, औरत के अनंत आनंद को दर्शाता हुआ ।

ये मूर्ती मेरे ‘बिफोर काली’ ( यानी, काली के पहले) नामक मूर्तियों की श्रृंखला में एक थी, जो इंडस घाटी ( Indus Valley) की प्राचीन शिल्प कृति पर आधारित थी। मेरे लिए उन शरीरों को दर्शाना बहुत मायने रखता है, जिन्हें भारतीय शिल्प कला के पारम्परिक रूप में अब दर्शाया ही नहीं जाता। भारत की शास्त्रीय मूर्तिकला कई सौ सालों से, सब कुछ बहुत कूट नियमों में बंध गयी है। अगर आप किसी भी देव/ देवी को बनाना चाहें, आपको उन्हें एकदम फिक्स नाप, अनुपात, और चिन्हों के साथ ही उन्हें बनाना होता है। इंडस घाटी की प्राचीन शिल्पकला में मुझे जो बात बहुत प्यारी लगती है, वो ये है, कि औरत का शरीर कैसे दिखाया जाए, उसपर उनकी सोच वेदों और सूत्रों से कहीं पूरानी है। फिर भी उन प्राचीन कृतियों में एक कमाल का विस्तार है, औरतों के शरीर के विंभिन्न रूपों को कमाल से दर्शाया गया है.. यहां आपको एक स्तन वाली औरत दिखेगी, ऐसी औरत भी दिखेगी जो करीबन आदमी सी लगेगी । या फिर मोटी, पतली, बूढ़ी… इंडस घाटी की मूर्तिकला में शरीर वैसे दिखाए गए हैं, जैसे कि वो होते हैं। आज की कला में ऐसा अक्सर नहीं दिखता। तो इस लिए मेरे लिए ज़रूरी हो जाता है कि मैं बदन का वो किस्म तो दर्शा पाऊं जो मेरा अपना है- यानी कुछ झुका हुआ सा, वजनदार, अधेड़ उम्र का शरीर।

एक औरत होते हुए अपने खुद के शरीर से, अपने आप से प्यार करना – अपना काम करते करते मैं ये ज़रूरी बात सीखती हूँ।मेरी कला के हर देखने वाले को ये अवसर देना कि वो इन सारे शरीरों को प्यार कर सकें। ये मैं अपने लिए भी उतना ही करती हूँ, जितना उन और औरतों के लिए जिनके शरीरों ने भी ऐसे काम किये हैं। औरत कैसी दिखनी चाहिए- इस सवाल के पारम्परिक जवाबों में मेरी रुचि नहीं है। मैं चाहती हूँ कि मेरी बनायी औरतों के वैसे बाजू हों जो अपने बच्चे को उठाते उठाते मेरे हुए। या फिर वैसा पेट जैसे मेरा, जिसने मेरे बच्चे को बड़े होने का आश्रय दिया और फिर खुद कभी वापस छोटा हुआ ही नहीं।

बिफॉर काली (काली के पहले ) २०१८

बेफोर काली की श्रंखला में ये मेरी आख़री कृति थी। इसमें में मैं दो धाराओं को मिलाना चाहती थी- लज्जा गौरी और शीला -न- गिग। लज्जा गौरी देवी का वो रूप है जिसमें उसके सर की जगह कमल होता है, और उसकी योनी साफ़ साफ़ दिखती है। ये एक बहुत पुराना स्वरूप है और ये भारत, नेपाल और दुनिया भर में कई और देशों में भी प्रचलित है। यूरोप के देशों में इसे एक बुढ़िया के रूप में दर्शाया जाता है जो अपने विशाल योनी को खोल के बैठी है। आयरलैंड में इसे शीला-न-गिग कहा जाता है। ये दोनों ही देवी रूप हैं- एक किस्म की देवी माता का आदिरूप। पहली बार इसके इतने मुखर रूप को देखकर मैं खुद चौंक गयी थी। इतना खुलापन, इस पोज़ को ज़हन में लेने में मुझे वक्त लगा था। कितना आमंत्रण था इस पोज़ मैं, और कितना आत्मसमर्पण भी।इस समय हमारी दुनिया प्यार और सेक्स को लेकर फुल कन्फ्यूषन ( confusion ) में है। मैं पश्चिम में रहती हूँ, यहां पर एक समय था जब स्त्रीवादी औरतें कह रही थीं कि वो सेक्स को लेकर एक क्रांति ला रही थीं, औरतों को आज़ादी मिलने वाली थी। हाँ , ये सच है कि इस से कुछ औरतों को अपनी सेक्सुअलिटी पर हर निर्णय खुद लेने का विशेष अधिकार मिल गया । पर सच्चाई तो ये है कि इसने समाज को औरतों के शरीर को कण्ट्रोल करने के नए तरीके दिए, औरतों के शरीर अब और आसानी से आदमियों के लिए उपलभ्ध थे। यानी आदमी वैसे ही रहे, अत्याचारी। अब औरतें उस मकाम पर हैं जब वो समझने लगी हैं कि ऐसा होना उनके लिए हानिकारक था, और अब हम और सहजता से रहने के नए तरीके ढूंढ रही हैं। मुझे लगता है कि इस सब का क्या मतलब है, हमें नए सिरे से समझना होगा।

सच तो ये है कि हर एक को एक रिश्ते का तजुर्बा नहीं होता, न ही हर एक कोई भयानक सेक्सुअल हादसे का शिकार होता है। और मुझे अपने व्यक्तिगत एक्सपीरियंस से ये भी पता है कि आप गहरे ज़ख़्म के असर से निकल सकते हैं, और एक आनंदमयी सेक्स औरखूबसूरत करीबियों के भावुक रिश्ते का सुख पा सकते हैं। लोगों को मर्ज़ी और आनंद के बारे में बात कर पाना सिखाना होगा।इस तरह हम केवल दर्द की बात न करके, आगे बढ़ कर ये बात भी तो कर सकते हैं कि …ये सब अच्छी तरह से कैसे किया जाए?

मेरे ख्याल से इसके लिए कला एकदम मुनासिब है । ये लोगों को छूने का अवसर देती है, वो सब सोचने का मौक़ा देती है जो सोचने के लिए वो अपनी आम ज़िंदगी में शायद समय नहीं निकालते…अपने पर अपने अधिकार की बातें, आनंद, सुख की बातें।

(एजेंट्स ऑफ़ इश्क़ को यूं सुनाया गया। चित्र जयश्री अभिचंदनी के सौजन्य से)

जयश्री अभिचंदनी मुंबई में १९६९ में पैदा हुई, और उन्होंने कला में उच्च शिक्षा (MFA) यूनिवेर्सिटी ऑफ़ लंदन के गोल्डस्मिथ कॉलेज से की। वो फोर्ड फाउंडेशन गैलरी के लिए एक क्रम में बंधीं तीन उदघाटन प्रदर्शनियों का आयोजन कर रही हैं।

Comments

comments

1 thought on “मैं वो देवियाँ बनाती हूँ जिन्हें मैं देखना चाहती हूँ”

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *