इज़हार- ए- इश्क़ : उर्दू ग़ज़लों से आती समलैंगिक आवाज़ें - Agents of Ishq

इज़हार- ए- इश्क़ : उर्दू ग़ज़लों से आती समलैंगिक आवाज़ें

सालिक ख़ाँ द्वारा

जब से मैंने उर्दू ग़ज़ले पढ़ना शुरू कीं, मैंने उन ग़ज़लों की एक ख़ासियत पर ग़ौर किया। उन में अक्सर प्रेमी/माशूक़ की बात होती है,परंतु यह प्रेमी हमेशा लिंगहीन होता है। इस बात ने मुझे लंबे समय तक चकित किया था।

क्योंकि उर्दू कवितायें या ग़ज़ले – जिनको रेखता भी कहा जाता है – अक्सर उन्हें आदमी लिखते थे – और प्रेमी के लिंग को हमेशा साफ – साफ नहीं दर्शाया जाता था। यह तो हमारी ही आदत है कि हम समझ लेते हैं कि जिस प्रेमी का उत्सव वे मना रहे हैं या जिसके लिए वे पीड़ा (विरह की) में हैं, वह एक महिला है।

परंतु ग़ज़लों को ध्यान से देखने पर ग़ज़लों की बहुत भिन्न चित्ताकर्षक क़िस्म देखने को मिलती हैं। कुछ शायर/कवि जैसे कि मीर ने पुरुष प्रेमी का भी जिक्र किया है। रेखती कविताओं की शैली में ही, कुछ ग़ज़लें औरत की आवाज़ में औरत के प्रेमी होने की बात भी कहती हैं। सरापा, रेखती की ही एक क़िस्म है, जिसका ध्यान शरीर के हिस्सों पर होता है। उर्दू शायरों के काम को अच्छी तरह से पढ़ने पर मुझे यह समझ आया कि कामेच्छा पर लेखन और उनके दृष्टिकोण में एक ख़ूबसूरत तरलता है।  

यह बात और है कि उर्दू लेखन पर बहुत काम हुआ है, परंतु इस में मौजूद समलैंगिकता पर किसी ने चर्चा नहीं की है । यहाँ तक कि भारतीय उपमहाद्वीप के समकालीन साहित्य में भी नहीं। बहुत समय तक, मुझे लगा था कि औरत की ना-मौजूदगी और भिन्न प्रकार की लैंगिगकता का ज़िक्र ना होना, इस्लाम में यह सब नदारत होने की वजह से होगा – इस्लाम, जैसे की इसाई और किसी भी और अखंड धर्म की तरह ही, समलैंगिकता की कड़ी निंदा करता है। लेकिन, मैं गलत था- सच में ग़लत!

ग़ज़ल की उत्पत्ति अरेबियन उपद्विप में 8 वीं शताब्दी के दौरान हुई थी, जहां से यह पर्शिया/ फ़ारस देश में फैली, जिससे फ़ारसी ग़ज़ल का जन्म हुआ।

आधुनिक उर्दू ग़ज़ल फ़ारसी पिता और भारतीय माता के सांस्कृतिक विवाह के प्यार से पनपी संतान है। प्रेम की निशानी हैै । इसका कलात्मक सौंदर्य फ़ारसी-अरबी इस्लामी साहित्य से आया है, जिसमें ‘माशूक़’ का लिंग भी शामिल है, जो कुछ इस तरह बयां किया गया है,कि माशूक़ स्त्री भी हो सकती है, पुरुष भी। यह काफी हद तक फारसी परंपराओं के कारण है, जो उर्दू कविता ने विरासत में लिया है। फारसी भाषा में, पुरुष और महिला क्रियाओं या सर्वनामों के बीच कोई स्पष्ट अंतर नहीं होता है, और वाक्य के निर्माण से यह निर्धारित करना असंभव है कि बात पुरुष की हो रही है या महिला की। ग़ालिब द्वारा निम्नलिखित दो जो़ेड़ों पर विचार करें:

ये नहीं थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।

(यह मेरे भाग्य में नहीं था कि मेरा प्यार मुझे मिले,

फिर भी अगर

और जीवित रहता इस कि ही प्रतीक्षा में रहता)

अब, इस शेर में, भले ही प्यार/ प्यार करनेवाला (यार) का लिंग व्याकरणिक रूप से मर्दाना है, किन्तु इसका लिंग निष्पक्ष है, यार का अर्थ मादा भी हो सकता है, और पुरुष भी हो सकता है।

 

मीर के प्रिय

नाशिख, ग़ालिब और ज़ौक जैसे सभी महान उर्दू कवियों ने अपने ‘उस्ताद’, मीर मुहम्मद ताकी ‘मीर’ (1722-1810),ग़ज़ल कवि को बहुत आदर से देखा है, जो ‘खुदा-ए-सुखान’ या ‘,उर्दू शायरी के ख़ुदा के रूप में जाने जाते हैं। उर्दू कविता में मीर का यह कद है कि ग़ालिब (17 9 7-186 9) लिखते हैं:

‘गालिब ‘, अपना तो अकीदा है बा-कौल-ए-‘नशीख’

आप बे-बहारा है, जो मुताकिद-ए-मीर नहीं।


( ग़ालिब यह इस नासिख के शब्दों पर मेरा विश्वास है।
वह जो मीर को नहीं मानता, वह एक मूर्ख है)

मीर ने अपनी कविताओं में लिंग के प्रतिनिधित्व के लिए सीमाओं का उल्लंघन किया था, जिसने उर्दू गज़ल के आधुनिक रूप को आकार दिया। मीर की एक ‘अतर का लौंडा’ – एक इत्र-वाले का बेटा – और ‘एक मिस्त्री का लड़का’ – ‘द सन ऑफ मेसन’- उसकी कविता में काफी स्पष्ट है।

मीर क्या सादे है, बीमार हुए जिसके सबब
उसी अतर के लौंडे से दवा लेते हैं

(तो मैं निर्दोष हूँ,मीर इतना भोला है कि उसी इत्र वाले
के लड़के से दवा मांगता है, जो मेरी बीमारी का कारण है!)

मीर के दीवान (कविता संग्रह) के एक करीबी विश्लेषण से पता चलता है कि उसका प्यारा/प्यार स्पष्ट रूप से पुरुष है, और वह प्रायः किशोरावस्था के लड़कों के साथ अपने आकर्षण के बारे में बात करता है, जो तरुणावस्था में प्रवेश ही किये होते हैं। कम से कम 225 ऐसे जोड़े हैं जो स्पष्ट रूप से ‘लड़का’, ‘लौंडा’, ‘तिफ्ल’, ‘नौनिहाल’, ‘पिसार’ जैसे शब्दों का उपयोग करते हुए नर प्रेमी को संदर्भित करते हैं।

निम्नलिखित दो बिंदुओं पर विचार करें:

वे नहीं तो उन्हों का भाई और,
इश्क कर्ने की क्या मणाई है

(मैं तुम्हें चाहता हूँ, लेकिन यदि तुम नहीं, तो

तुम्हारा भाई ही सही!
मुझे प्यार करने की ज़रूरत है, प्रिय कौन है यह मसला नहीं है)

लड़के बिरामनों के संदल भरी जबीनें

हिंदुस्तान में देखें सो उनसे दिल लगाएँ

(भारत के ब्राह्मण लड़के मेरे दिल को चोर जाते हैं
सुंदर माथे, चंदन के सुगंध में डूबे और ख़ूबसूरत, मुझे नशे में ले जाते हैं )

अफ़सानाखवां का लड़का क्या कहिए दीदनी है
किस्सा हमारा उसका यारों शुनीदनीं है


( कहानीकार का लड़का तुलना से परे नज़ारा है,
और उसका मेरा किस्सा, वो भी तुलना से परे है ।)

वो बागबां पिसार कुछ गुल गुलशगुफ्ता है अब
ये और गुल खिला है एक फूलों की दुकान पर

(फूलवाले को एक नया फूल मिला है,

यह माली का लड़का है, जो अभी फूल की तरह खिला है।)

 किया है उस आतिशबाज़ के लांडे का इतना शौख मीर
 बह चली है देख कर उसको तुम्हारी राल कुछ।


(आतिशबाज़ के बेटे ने मेरे दिल को आग यूँ लगाई है,
 मैं बेबस बैठा हूं और लार टपक रही है। )

 

हालाँकि सभी उर्दू कवियों ने समलैंगिक विषयों पर विस्तृत तौर पर नहीं लिखा है, लेकिन ऐसे विषमलैंगिक पहचान वाले कवियों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने किशोर युवा लड़कों को ले के कुछ कल्पना की होहालांकि हम यह नहीं कह सकते कि ऐसी वासना असल रिश्तों में बदली कि नहीं। निम्नलिखित दोहे में ग़ालिब लिखते हैं:

आमदखत से हुआ है सर्द जो बाज़ारदोस्त

दूदशमाकुष्ता था शायद खतरुख़्सारदोस्त

(दाढ़ी के बाल अंकुरित होने के साथ, मेरे माशूक की मांग कम हो गई है।

अब यह बुझती हुई आग के धुएं की तरह दिखाई देती है।)

आज, हम एक बूढ़े और एक जवान लड़के के बीच के सम्बन्ध को कम उदारता से देखते हैं लेकिन इन कविताओं का सम्बन्ध ऐसे समय से है  जब रस्मो रिवाज़ अलग थे।) युवा लड़कों के प्रति प्रेम की यह परंपरा अरब और फारस की प्रारंभिक इस्लामी दुनिया के समय से चलती रही है, जहां एक युवा पुरुष प्रेमी होना एक आम प्रथा थी। गज़ल के इतिहास के कुछ प्रभावशाली व्यक्ति, जैसे कि 8वीं शताब्दी के फ़ारसी कवि अबू नुवास और 14वीं शताब्दी के अरब कवि नवाज़ी बिन हसन, जिन्हेंशम्स अलदीनया धर्म का सूरज भी कहा जाता है, ने मर्दों के समलैंगिक कामुकता विषयों पर बड़े पैमाने पर लिखा है, जिसमें प्रेमी एक नौजवान लड़का है जिसने हाल ही में युवावस्था प्राप्त की है।

समलैंगिक प्रेम हमेशा से ही गज़ल के इतिहास का एक हिस्सा रहा है। लेकिन भारत में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, जब लैंगिकता को लेकर ब्रिटिश विक्टोरियन मानसिकता जड़ पकड़ने लगी, तो उर्दू गज़ल से समलैंगिक विषयों का गायब होना शुरू हो गया। 20 वीं शताब्दी के कवि फ़िराक गोरखपुरी (1896-1982) और जोश मलिहाबादी (1894-1982), जिनकी कविताओं और निज़ी ज़िन्दगी दोनों में समलैंगिकता जग ज़ाहिर थी, को छोड़कर हाल के दिनों से शायद ही कोई और उदाहरण हैं।

बहरहाल, हालांकि वे सबसे उद्धृत और जानेमाने हैं, लेकिन वो पुरुष जो अन्य पुरुष या लड़कों की कामना करते हैं, उर्दू ग़ज़ल की क्यूअर (queer)  भाषा सिर्फ वो ही नहीं दर्शाते हैं।

 

ग़ज़लें  और स्त्री की अभिव्यक्ति

उर्दू कविता पुरुषों की उत्पत्ति रही है, जहां कथाकार और प्रेमी को व्याकरणिक रूप से पौरुष लिंग में दर्शाया जाता है। हालांकि यह पितृसत्तात्मक परंपरा पुरुषों की समलैंगिक कामुकता के लिए एक जगह पैदा करती है, पर महिलाओं की समलैंगिक कामुकता की अभिव्यक्ति को पूरी तरह से खारिज करते हुए उसके लिए सारे दरवाज़े बंद कर देती है। पूर्वआधुनिक उर्दू कविता में स्त्री रचनाकारिता की अनुपस्थिति का मुख्य कारणपर्दाप्रणाली है, जिसमें महिलाओं को केवल सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर रखा गया है, बल्कि साहित्य और विचारों की अभिव्यक्तिसमलैंगिक कामुकता या अन्यथासे भी बाहर रखा गया है।

रेख़्तीउर्दू कविता की एक दिलचस्प शैली है, जिसे लखनऊ में 19वीं शताब्दी की शुरुआत में पुरुषरेखता” (जिसमें पुरुष कथाकार और उसके प्रेमी का प्रभुत्व होता था), का मुकाबला करने के लिए विकसित किया गया था।रेख़्ती”, एक पुरुष कवि द्वारा अति बनावटी स्त्री स्वर में लिखी गई कविता शैली है, जो महिलाओं से संबंधित सामाजिक मुद्दों पर प्रकाश डालती है। रेख़्ती में, ‘दूगण‘, ‘यागण‘, ‘ज़नखि‘, ‘बेगाना‘, ‘शाखी‘, ‘इलाची‘, ‘वारीऔरप्यारीजैसे शब्द अस्पष्ट तौर पर महिला प्रेमी को दर्शाते हैं।

रेख़्तीशब्द का निर्माण सादत यार खानरंगीन” (1757-1835) ने किया था, जो कि जेंडर के मुद्दों पर अपनी संवेदनशीलता के लिए जाने जाते थे। रंगीन ऐसे पहले उर्दू कवि भी थे जिन्होंने महिलाओं के बारे में एक कविता संग्रह लिखा जिसका शीर्षक थाअंगेख़्ता“,यानीकामोत्तेजित“[छंद] रंगीन केकामोत्तेजितछंदों में पुरुषों और महिलाओं के बीच गैरवैवाहिक यौन सम्बन्ध तथा महिलाओं और यौन रूप से जागरूक महिलाओं के बीच के यौन संबंध शामिल थे।

एक शैली के रूप में, रेख़्ती सिर्फ समलैंगिक ही नहीं हैदरअसल रेख़्ती में एक  साधारण प्रसंग ऐसा है जिसमे वेश्याओं के बीच दिनप्रतिदिन की बातें शरारती और रसिक मुहावरों में दिखाई गयी हैं रंगीन की कविता, हालांकि, यौन विषयों पर ज़्यादा केंद्रित थी। प्रस्तुत है एक दोहा जो एकवर्जितविषयमासिक धर्मके बारे में बात करता है :

 

रंगीन कसम है तेरी ही, हूँ मैली सरसे मैं

मत खोलकर के मिन्नतज़ारी इज़ारबंद

(रंगिन मैं आपकी कसम खाती हूं कि मैं महावारी में हूँ,

मेरी कमरबंद उतारने के लिए मिन्नतें ना करें )

इस्लाम में क्यूअर (queer) रिश्ते और समानसेक्स प्रेम निषिद्ध हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि रेख़्ती कविता ने इस बात को

तवज्जो नहीं दिया, जैसा कि रंगीन द्वारा लिखी इन पंक्तियों में देखा गया है:

मेरी डुगुना और मैं यूं नहीं हैं जैसे रेख़्ता

दोनों की जानें एक हैं तने जो कस्ती हो अबस।

(मेरी [महिला] प्रेमी और मैं उर्दू की तरह बिखरे हुए नहीं हैं,

हमारे जीवन एक हैं; तुम हमें यूँ ही ताना देती हो।)

यहां रंगीन द्वारा लिखा गया एक और दोहा है, जिसमें उन्होंने एक डिलडो (dildo) का स्पष्ट संदर्भ प्रस्तुत किया है:

आज क्यूँ तूने डुगुना येसबुराबांधा

ठेस लगती है, भला क्योंकि बच्चेदानी बचे।

(तुमने इस डिलडो को क्यूँ बंधा, प्यारी डुगुना

ये दुखता है, दर्द करता है, मुझे अपने गर्भ की चिंता है।)

 

रेख़्ती की एक और उपशैली हैचपतीनामा, जो समलैंगिक कामुक विषयों से संबंधित एक लंबी कविता जैसी है। लेखक रुथ वनीता ने चपती कोडिलडो के बिना खेलनेके रूप में वर्णित किया है। कलंदर बख्श जुर्राट (1748-180 9) के निम्नलिखित दो दोहों पर विचार करें:

ऐसी इज़्ज़त कहाँ है मर्दों में

जैसी इज़्ज़त डुगुना चपती में

(पुरुषों में खुशी है ही कहाँ,

डुगुना, चपती की तुलना में।)

इंशा अल्लाह खानइंशा” (1756-1817), एक और शानदार  रेख़्ती कवि, ने समलैंगिक प्रेम पर बड़े पैमाने पर लिखा था। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित छंद देखें:

आग लेने को जो आईं तो कहीं लाग लगा

बीबी हमसाई ने दी जी में मेरी आग लगा

ना बुरा माने तो लूँ नोच कोट मुट्ठी भर

बेग़म हर तेरी क्यारी में हरा साग लगा।

(जब वह आग लेने आई, तो एक आकर्षण ने मुझे जकड़ लिया;

पड़ोस वाली स्त्री ने मेरे दिल में आग लगा दी

गर तुम्हें ऐतराज़ ना हो, तो क्या मैं एकदो मुट्ठी भर जब्त कर लूँ?

जवान स्त्री, तेरे हर बिस्तर में हरियाली जो उगती है।

 

जन साहिब (1810-1886) ने यौन कल्पनाओं के बारे में लिखा, ये जरूरी नहीं कि उनकी रचनाएं समलैंगिककामुकता को दर्शाती होंलेकिन एक चंचल नटखटपन का अनुभव जरूर देती हैं।

 

ले चुका मुंह में है लल्लु मेरी सौ बार ज़ुबान

हो गया कब का मुसलमान, ये क्या काफ़िर है।

(उसने मेरी जीभ कई बार चूसी है, इस लल्लू ने,

वह लंबे समय से मुसलमान हैना, वो काफ़िर नहीं है।)

ज़ाल तो बेशक़ है तू, बेटा अगर रुस्तम नहीं

भार दोदो जोरुओं का और कमर में खम नहीं।

(गर तुम असल में रुस्तम नहीं, तो ज़ाल तो ज़रूर हो!

दो बीवीयों का भार उठाये हो, फिर भी पीठ झुकी नहीं है!)

 

रेख़्ती का एक और उपनिवेश है, जिसेसरापाकहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ हैसिर से पैर तक इसमें कवि शरीर के विभिन्न हिस्सों के बारे में लिखता है।

 

यहां ज़ुर्रत अपनी प्रियसी के पैरों का वर्णन कर रहा है:

और जो हाथों में उठा लूं तो अज़ब लुत्फ उठाऊँ

फ़िर जो वो लुत्फ उठाना तुझे बिठा के दिखाऊँ।

(और अगर मैं पैर हाथों में उठाऊं, तो एक अजीब सा सुकून पाऊं।

और फिर तुम्हें बिठाकर, वो सुकून तुम्हें दिखाऊँ!)

या, यह छंद जहां वह नितंबों और जांघों के बारे में बात करता है:

कोह सुरीन देखो तो सर फोड़ो तुम

रानन मखमल सी हैं  ख्वाबखुरस छोड़ो तुम।

(और यदि तुम कूल्हों के पहाड़ देखोगे, तो अपना सर फोड़ लोगे।

और जांघ जो मखमल सी हैतुम्हें हर सोच और हर सपने से परे ले जाएंगी।)

 

 

यहां एक और उदाहरण दिया गया है, जो आज तक मैंने जितने भी योनि के काव्य वर्णन पढ़े हैं, उनमें सबसे अच्छा है:

और क्या इसके सिवा कीजिये मिधत उस की

दो हिलाल एक जगह देखे हैं कुदरत उसकी

(मैं इसकी और क्या प्रशंसा कर सकता हूं,

एक जगह पर दो अर्धचंद्राकार चंद्रमा देखे गएबनाने वाले की तारीफ़ ही की जा सकती है!)

केवल तब जब आप इन काव्य रत्नों से पर्दा हटाते हैं तो आपको महसूस होता है कि हमारी साहित्यिक विरासत को दबाने के लिए औपनिवेशिक व्यवसाय (colonial occupation) ने क्याक्या ढाया। उर्दू कविता के भीतर छुपी ये कुईर (queer) शैलियां ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुँचने लायक हैं। प्रेमसमलैंगिक या अन्य, कोई सीमा नहीं जानता है। प्रेम उस ग्रीक उद्धरण की तरह है 

तुमने मुझे दफनाने के लिए क्या नहीं किया / लेकिन तुम भूल गए कि मैं एक बीज था ये 20 वीं शताब्दी के कवि डीनोस क्रिश्चियनोपोलोस द्वारा लिखी गयी है, जिनकी साहित्यिक समुदाय ने उनके (होमो/समलैंगिक) यौन संबंधों के कारण काफी निंदा की थी। कभीकभी, मैं प्रेम की कल्पना एक खाली परिदृश्य पर लगी  आग के रूप में करता हूँ। आग के भीतर आग, आशा के भीतर एक आशा। यह इस परिदृश्य की सांस्थिति (topology) को खारिज कर देता है, जिस तरह से कविता धार्मिक और सामाजिक मानदंडों का उल्लंघन करती है।

या जैसे गालिब कहते, “इश्क पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश गालिब“!

सालिक टॉक जर्नलिज्म  में सोशल मीडिया कम्युनिकेशंस का नेतृत्व करते हैं (उर्फ गालिबइनचीफ हैं ), और उन्हें कविता, भौतिकी और गालिब के बारे में ट्वीट करते देखा जाता है @baawraman

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