निमिषा द्वारा
चित्रण सयाली करकरे
अनुवाद हंसा थपलियाल
कुछ छः महीने पहले मेरी माँ ने मुझे फ़ोन करके कहा ” मुझे ब्लू फिल्म देखनी है”। मुझे याद है, मुझे लगा था ‘वाह”! यानि इस शब्द का प्रयोग अब भी होता है!
उसने कहा कि उसने सुना है लोग फ़ोन पर पार्न देखते हैं, क्या ये संभव है? मैंने जवाब दिया कि या तो 3 G कन्नेक्श्न की ज़रूरत पड़ेगी, या उसके बदले उसे एक लिंक भेजा जा सकता है जिससे वो ये कंप्यूटर पर देख सके। वो बड़ी लजीली हो रही थी । बाद में मैंने कुछ सहकर्मियों और दोस्तों से इस बारे में बात चीत की । मैं कहती “ए, सुनोगे, मेरी माँ और मेरे बीच सेक्स को लेकर बड़ी अजीब बात हुई?”। वो बड़े बेआराम से हो जाते और कहते “अहह, हमें इसके बारे में नहीं सुनना” । माना कि लोग अपने माँ-बाप के यौन संबंधों की बात को लेकर अजीब महसूस करने लगते हैं, पर मेरी माँ के कथन को सुनने से उन्हें क्या आपत्ति थी?
क्या वजह है कि परिवारों में सेक्स पर बात से हर सूरत में बचने की कोशिश की जाती है? मैं पॉलीएमरस (पॉलीएमरी – यानिकि अनेक पार्टनर के साथ रोमानी और/या लैंगिक तरह से शामिल होना), पंसेक्षुअल ( सभी लिंग पहचान और जैविक लिंग के लोगों की तरफ़ आकर्षित होना) हूँ, और मैंने सेक्स के अलग अलग पहलू पर कई लोगों से कई बातें की हैं – बिना सामने वाले की उमर, उसकी लिंग पहचान, या हमारे परिचय की घनिष्टता से विचलित हुए । सेक्स को लेकर अपने निजी अनुभवों के बारे में या सेक्स पर कोई और बात करने में मुझे कोई झिझक नहीं होती । फिर भी जब बात मेरे माँ बाप और मेरे बीच सेक्स को लेकर हुई बातचीत पर आती है, अधिकतर लोग अटपटा सा महसूस करने लगते हैं। अन्य लोगों जैसे माँ- बाप भी सेक्स करते हैं, पर उनके यौन संबंधों को लेकर बातचीत लोगों को अक्सर बेआराम कर देती है – हालाँकि हम वो आर्टिकल बड़े जोश से शेयर करते हैं जिसमें कि लिखा हो कि माँ-बाप को बच्चों की सेक्स लाईफ स्वीकार लेनी चाहिए । तो फिर यही उत्तर्दायित्व बच्चों पर क्यों नहीं लागू होता? जब मैं अपने माँ बाप के यौन संबंधों की बात अपने साथियों से करती हूँ ( कभी कभी जब मैं मन ही मन इसके बारे में सोचती हूँ, तब भी), मुझे कुछ अजीब सा लगता है । मेरे दोस्तों ने यह भी कहा है कि अगर उनके भाई बहन भी अपनी सेक्स लाइफ को बातों बातों में प्रत्यक्ष कर दे, तो उन्हें बड़ा अजीब लगता है ।
मेरी माँ बड़ी कूल है, अपने समय से कहीं आगे है, पर साथ साथ, वो अपने समाज और परिवेश का हिस्सा भी है । मुझे लगता है कि अगर मेरी माँ कानपुर में नहीं होती तो बहुत अलग होती । वो एक काफ़ी स्वालम्बी, संतुष्ट जीवन जीती है । वो पचास के दशक की ग्रहणी है, और ऐसे कई काम करती है जो आम तौर पर आदमियों को सौंपे जाते हैं । बैंक के काम, कागज़ी काम, प्रलेखन, आफ़िस की देख रेख.. अगर मुझे कभी पासपोर्ट बनाने की ज़रूरत पड़े तो मैं अपने पिता से नहीं, माँ से कहूँगी। मेरी माँ काम करवा कर छोड़ती है । वो ये भी मानती है कि औरतों के पास अपना पैसा होना चाहिए। इसके पीछे मेरी माँ की ये अवधारणा है कि आदमी आपको अक्सर कई सारी चीज़ें करने की अनुमति नहीं देंगे, इसलिए आपकी अपनी अलग बचत होनी चाहिए। ताकि आप अगर कुछ करना चाहेंतो आपके पास अपना पैसा हो, आपको किसी को जवाब देने की ज़रूरत ही ना पड़े । तो वो व्यस्त रहती है, और औरतों के पैसे को बैंक में डलवाने के लिए उनकी मदद करते हुए, या फिर अगर कोई दोस्त अपना कोई छोटा कारोबार शुरू करना चाहती है, तो उसमें उसकी मदद करते हुए…
मेरा नारीवाद मेरे माँ के रवैए से बहुत प्रभावित है, ख़ासकर पित्रतन्त्र की अवधारणाओं पर उसकी प्रतिक्रियाओं से… मैंने उसके बचपन की कहानियाँ सुनी हैं, कैसे उसे शिक्षा से वंचित रखा जा रहा था, पर उसने अपनी पैंतरेबाजी की, और अपने परिवार से कहा “मैं इस कालेज को चुन रही हूँ । बस मुझे कालेज के बाहर छोड़ेगी, जो मेरे लिए एक दम ठीक है, क्योंकि नहीं तो मुझे शिक्षा ही नहीं मिलेगी । मुझे ये एक चुनाव करने दो, जिससे मेरे भाईयों को यह ख़याल नहीं सताएगा कि मैं कहीं और चली गयी हूँ । “ मेरे शादी के मसले पर उसने ये कहा कि लोग औरतों की शादी इसलिए कर देते हैं, क्योंकि वो कमा नहीं सकतीं।ब, जब मैं अपने लिए कमा रही हूँ, उसे मेरी शादी शुदा ना होने से कोई आपत्ति नहीं, हालाँकि रिश्तेदार टोकते हैं ।
18 की उमर में मैंने कालेज के लिए घर छोड़ दिया थाहैं उस ही समय के आस पास एक बार मेरी माँ ने मुझे फ़ोन करके कहा था कि उसे डिप्रेशन सा लग रहा है, एक खिन्नता, जैसे उसके जीवन का कोई मकसद ही नहीं है । भयभीत होकर मैं वापस घर भागी थी, और उसने मुझसे कहा ” तीन महीने से तुम्हारे पापा ने हमको छुआ भी नहीं है” । यह उसका ये कहने का तरीका था, कि उनके बीच सेक्स नहीं हुआ है । मुझे याद है मैंने यूँ सोचा था ” अब मैं क्या करूँ? मैं पिताजी के पास जाकर यह तो नहीं कह सकती ना कि ‘चलो भाई, चालू करो!” तब तो यह बड़ा ही अटपटा लगा था ।
पर हमने इससे पहले भी सेक्स पर बातचीत की थी।कई सालों से हमारी कई बातें हुई हैं: उसने अपने यौन संबंध, सेक्स के सुख, वासना, काम साहित्य, सेक्स पर पाबंदियाँ, प्रजनन, माँ बनना, इत्यादि पर बातचीत की है। ऐसी बातचीत की मेरी पहली चेतना उस समय की है, जब मैं स्कूल में थी।एक नवविवाहिता, जो हमारे रिश्ते में थी, हमारे घर आई थी, माँ से कुछ सलाह लेने के लिए। माँ ने मुझे कमरे में चले जाने को कहा था।पर बाद में उसने मुझसे उनकी बातचीत पर चर्चा की। हमारी रिश्तेदार के कुछ अलग ही सवाल थे…जैसे कि “क्या हमारे दो गर्भाशय होते हैं?”। मेरी किशोरावस्था थी, स्कूल में हमें जीव- विज्ञान पढ़ाया जाता था, मुझे याद है मुझे लगा था ” हैं! ये तो मुझसे उमर में कितनी बढ़ी है! इसे कैसे नहीं पता?” । पहली बार मुझे इस बात का बोध हुआ कि औरतें अपने शरीर के बारे में कितना कम जानती हैं।
पर मेरी माँ ने उस चर्चा में वो बातें कीं जो हमारे जीव विज्ञान के क्लास में कभी ना की जातीं।उसने मुझसे विवाह के दायरे में बलात्कार के बारे में बताया और मुझसे यह कहा कि विवाहित स्त्री को सेक्स के लिए राज़ी दे देनी चाहिए क्योंकि नहीं तो वैवाहिक बलात्कार और हिंसा का डर होता है… उसने ऐसा बहुत सुना है। हाँ, आज मैं उसकी बात पर मुड़कर गौर करती हूँ, तो मुझे उसकी बात बिल्कुल पुरुष प्रधान, पितृसत्तात्मक लगती है। पर इस बातचीत ने हमारे बीच सेक्स की विभिन्न बातचीतों का रस्ता भी तो खोल दिया।
हाँ मैंने इससे पहले भी उसे अपनी दोस्तों के साथ सेक्स के बारे में ताने मार कर, इशारों में बात करते हुए देखा था।
मुझे अपनी माँ की इन बातों के बारे में सोचना इसलिए भी दिलचस्प लगता है क्योंकि मेरे हमउम्र लोगों का, मेरा भी, ये मानना रहा है, कि हम सेक्स के प्रति जागरूक पीढ़ी हैं, और हमारे माता पिता की पीढ़ी सेक्स के बारे में बातचीत ही नहीं करती थी।मेरी माँ अपनी कामेच्छा को काफ़ी खुल कर व्यक्त करती रही है ।सेक्स पर हमारी बातचीत ज़्यादातर हिन्दी में होती है, और कई बार, बिना उस शब्द का इस्तेमाल किए। उदाहरणस्वरूप विवाह के सन्दर्भ में सेक्स को लेकर हमारी जो बातचीत हुई थी, उसमें उसने कहा था ” शादी में बहुत बुरा हो सकता है, तो इसलिए हाँ कर देनी चाहिए” । मेरे परिवार से किसी की शादी होने पर उसने उससे पूछा था “क्या तुम सॅटिस्फाइड हो?”। यानि, सुहाग रात पर सेक्स हुआ था कि नहीं। कभी कभी वो मुझसे पूछती है किमैं कब तक पढ़ती रहूँगी, मुझे ज़िंदगी के कुछ मज़े भी लेने चाहिए।
जब मैं कहती हूँ कि मैं मज़े लेती हूँ, तो वो कहती है, ” कुछ चीज़ें तुम शादी के बाद ही कर सकती हो”। हाँ, पर वो मुझसे अपने सेक्स लाईफ की चर्चा बड़े आराम से करती है। मेरे ख़्याल से ये इसलिए कि वो मुझे बराबरी का दर्ज़ा देती है। कालेज के लिए मेरा घर से बाहर जाना हमारे रिश्ते के विकास में काम आया।अब वो मुझमें बस अपनी बच्ची नहीं देखती, बल्कि एक स्वालम्बी वयस्क। साथ साथ, मैंने भी उसमें एक औरत का रूप देखना शुरू किया, ना सिर्फ़ एक माँ का।
माना कि वो अपनी चाहतों पर बतियाने में कुछशरमाती है, और आमचलनों पर हम दोनों का टिप्पणी देना उसे ज़्यादा आसान लगता है। पर उसमें काफ़ी आत्म विश्वास है।वो बहुत कुछ जानने की इच्छुक है, और हम जब भी बात करते हैं, वो सवाल पूछती रहती है।
साथ साथ उसकी बड़ी आध्यात्मिक् / धार्मिक प्रवृत्ति भी है। हर छः महीने वो पूजने को कोई नया देवता ढूँढ लेती है। उसे पढ़ना पसंद है तो वो वही धार्मिक ग्रंथ हज़ार बार, बार बार पढ़ डालेगी। हाल में उसके शादी के 35 साल पूरे हुए और वो गोआ जाने के ख़याल से बड़ी उतावली थी। उसने मुझसे पूछा ” चलेगा क्या? मेरे पास बिकीनी नहीं है..”। मुझे बड़ी सारी बातों का ब्योरा दिया जाता है, और ये भी बताया जाता है कि कैसे वो अपनी इन परिस्थितियों से जूझ रही है, जैसे कि मेरे पिता कैसे मोटे होते जा रहे हैं, और इसलिए कभी कभी उसे उनसे सेक्स करने में परेशानी होती है।
तो इस सब के होते हुए मुझे अपना वो पहला सवाल वापस करना है : ऐसा क्यों है कि जब हम अपने परिवार वालों की सेक्स लाइफ के बारे में कुछ सुनते हैं, तो हमें एक दम उठ भागने का मन करता है? अपने हम उम्र साथियों से बात करने पर कुछ बातें सामने आईं।
पहला तो यह कि यह हमारे माँ-बाप हैं, और हममें पीढ़ियों का अंतराल- जेनरेशन गॅप- है। किसी और का कहना था कि सेक्स को लेकर बहुत कुछ हम पॉर्न देख कर समझते हैं… अजीब, भिन्न किस्म के पॉर्न.. फिर अपने भाई बहन या माता पिता को वो सब टेड़ी-मेड़ी हरकतें करते हुए कल्पित करना बड़ा अजीब लगता है। किन्ही दूसरों को, माता पिता के सेक्स संबंध के बारे में सोचना उनको को यह याद दिलाता है कि उनकी सृष्टि इस तरीके से ही हुई है…।
कभी कभी माँ बाप यूँ कहते हैं.. “हम फलाना फलाना जगह में थे जब तुम गर्भ में धारण हुए “और इससे लोगों को अजीब लगता है। और तो और, माँ बाप से इन बातों पर बातचीत करने से उनकी सेक्स लाइफ के कुछ पहलू स्पष्ट हो सकते हैं, और इसके बारे में सोच कर मेरे कुछ दोस्तों को उलझन होती है।
अब इनमें कई सारी वजहें थोड़ी बेवजह सी हैं। हमारे दोस्त हैं, जिनके बच्चे हैं, हम उनसे यह बातें कहते नहीं झिझकते। हम अपने से उम्र में बहुत बड़े या छोटे लोगों से ये बातें कर लेते हैं।हमें अपने दोस्त, पहचान वाले, या किसी और (जिनसे हमारा कोई सेक्षुयल संबंध नहीं) के सेक्षुयल जीवन को स्वीकारने से कोई आपत्ति नहीं है।फिर माँ बाप को लेकर इतनी झिझक क्यों? अगर इस दुनिया में हमारे होने का श्रेय दो लोगों की आनंद भरी सौबत को जाता है, तो इस पर दिमाग़ पर रोड़े लगाने की क्या ज़रूरत है? कोई अपनी निर्मिति के बारे में क्यों नहीं जाना चाहेगा? मुझे तो पूरा ब्योरा चाहिए!
जब पॉर्न को लेकर माँ और मेरी बात हुई और मैंने उसे वो लिंक भी भेजे, उसने मुझसे पूछा- “तुम्हें ये सब कैसे पता है?” मुझे याद है, मुझे बड़ी उलझन सी हुई थी और ये कहने के बाद कि मैं अपने लॅपटॉप पर पॉर्न देखती हूँ, मैंने उस से कहा था ” माँ, मैं तुम्हारे से ये बात नहीं करने वाली”।
हमारी बातचीत में ये एक बाधा है, मैं उसे अपनी ज़िंदगी से उदाहरण नहीं दे सकती हूँ, जो मैं औरों के साथ कर सकती हूँ। हमेशा एक मुझे-मत-पूछो-मुझे-कैसे-पता-है किस्म की अधूरी बात रह जाती है। एक बार मैं उसे गर्व परेड ( जो समलैंगिक होने के गर्व में या उसके समर्थन में शहर शहर में निकाली जाती है) की तस्वीरें दिखा रही थी- सोच ही रही थी कि अपनी लैंगिकता की बात साफ़ -साफ़ उसके साथ करूँगी, कि वो बोली “तो ये सब हिंजड़े होते हैं क्या?”। बात कुछ बेडौल सी चल रही थी- अक्सर उससे ये बातें राजनीतिक रूप से बिल्कुल ग़लत, बेढंगी सी हो जाती हैं। मैंने “नहीं, नहीं” कहकर ‘क्वीर’ होना कैसा होता है, ये समझाने की कोशिश की। अपनी बात मैंने यूँ ख़त्म की “बाहर तो ये शादी वादी भी करके रहते हैं”।असुविधाजनक / बेआराम महसूस करने पर हम दोनों की एक अनकही हामी है।मैं अक्सर खुद भाँप जाती हूँ, जब उसे हमारी बातों से उलझन होने लगती है ।वो यूँ नहीं कहती कि “ऐसा मत कहो” या “तुमने दुनिया कहाँ देखी है”। वो सर हिलाएगी और चुप हो जाएगी। सवालों जे जवाब टटोलना बंद कर देगी। मुझे जैसे चुप होने का सिग्नल मिल जाता है। ” चलो कभी और ये बात करेंगे” मैं यूँ कहने लगती हूँ।और अब हमारी बातें भी किसी नई सीख का रेखाचित्र नहीं रहीं है: मैं यूँ नहीं सोचती कि हमारी बातों के ज़रिए या वो कुछ सीख रही है या मैं। बस ये पहचानती हूँ कि हाँ, हमारे बीच ये बातें होती हैं।
मैं चाहती तो हूँ कि अपने माता पिता के सामने अपने इन पहलूओं को पेश कर सकूँ- कि मैं नारीवादी हूँ, क्वीर हूँ, एक कर्मठ कार्यकर्ता हूँ, पर मुझे लगता है वो ये बातें नहीं समझ पाएँगे। मैंने अपनी माँ से इतना ज़रूर कहा है कि अगर मैंने शादी की भी, तो वैसे नहीं करूँगी जैसे परिवार के और लोगों ने की है। कि वो चुने हुए कुछ लोगों के साथ कोर्ट में होगी क्योंकि मैं शादी की रीत में विश्वास नहीं करती। उनके लिए, अभी, रॉमांस और सेक्स को लेकर उनके अपने विचारों की वजह से, मैं जैसे सेक्स के दायरे के बाहर हूँ। हमें, हमसे पहले आई पीढ़ियों के सेक्स के प्रति सकारात्मक विचारओं को समझने की ज़रूरत है, साथ में ये भी कि हमारे विचार भी कोई बहुत पहुँचे हुए नहीं हैं। हम अपने आप को भले ही सेक्स की ओर बहुत सुलझा हुआ और सकारात्मक समझें, पर माँ बाप पर बात आते ही हम अपने कन्डीशिनिंग/ अनुकूलन के शिकार हो जाए हैं।
हाँ अगर हमारी माँ ही हम से पॉर्न देखने पर सलाह ले… फिर तो हर तरह से एक नई शुरूआत संभव है।
निमिषा एक स्ट्रीवादी शोधक हैं, जिन्हें हाल ही में बिल्लियों के प्रेम का पथ परिवर्तक बनाया गया है। वो संरचना पर काम करने वाली कलाकार हैं, जो अपने अंदर कलात्मक नब्ज़ को जागरूक करना चाहती हैं।
Very beautifully written article.