मुझे रामा कहके बुलाओ: बाबा को फिरसे, ध्यान से देखते हुए - Agents of Ishq

मुझे रामा कहके बुलाओ: बाबा को फिरसे, ध्यान से देखते हुए

अंजलि अरोन्डेकर द्वारा 

अनुवाद: हंसा थपलियाल

 

आप कैसे पिता हो, ये इस बात पर निर्भर करता है, कि आप किस तरह के आदमी बनने को तैयार हो पुराने ‘मेरे पापा सबसे स्ट्रांग ‘ टाइप के ढांचों से कितने दूर जाने तो तैयार हो

आज, इस ‘फादर्स डे स्पेशल ‘ में, दो औरतें उन आदमियों को याद करके लिखती हैं, जो उनके पिता  थे

तो ये रहा अंजलि अरोन्डेरकर की लिखी सुन्दर याद दूसरा लेख स्वाति भट्टाचार्य द्वारा लिखित है, उसका नाम है ” तुम्हारे पापा ने क्या किया ? “

उसका लिंक यहां है

 

                                                

वो कहते, मुझे रामा कहकर बुलाओ मैं १३ साल की थी, चिड़चिड़ी, अंदर क्वीयर फीलिंग्स पनप रही थीं, और अपनी किशोर ज़िंदगी में जिस जिस का कहना मानना पड़ रहा था, उस सत्ताधारी के विरोध में थी।

और फिर ये बाबा, हर बार मुझसे कनेक्शन बनाने की कोशिश में लगे रहते, और उस कोशिश में, पिता होने के सारे नियमों से एक्सपेरिमेंट करते रहते। “मुझे रामा कहकर बुलाओ” उन्होंने फिरसे कहा, चेहरे पर उनकी वो आधी सी मुस्कान। मैं तुम्हारा दोस्त बनना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि तुम मुझ से बात करो ।”

मैंने उन्हें कभी भी रामा  कहकर नहीं पुकारा, न उस दिन, न कभी और। वो मेरे लिए हमेशा बाबा ही रहे, मीठे, निराले और भरपूर प्यार देने वाले पिता। मेरी जान-पहचान का पहला, कमाल का आदमी। उनकी बड़ी सारी कहानियां मेरे ज़हन में होतीं: कि वो मुझे पैदा होते हुए देखना चाहते थे ( ये 1968 की बात है, उस समय ऐसी इच्छा रखना, मर्दानगी के खिलाफ मानी जाती होगी)। फिर उनकी वो झक, कि बंद जूते नहीं पहनेंगे। उनका वो दमकता, चमकता, कवी का मन। एल्गोरिथम संबंधी उनके मज़ाक जिनसे वो कभी न थकते।  बाबा मेरे लिए,  पंखुरी दर पंखुरी, एक हमेशा खुलते रहस्य सामान थे ।  मज़ा आता था! वो कहते थे न कि ‘अंजू, हमेशा दो से ज़्यादा संभावनाएं होती हैं !’ । तब भी, जब 21, की उम्र में मैंने अपना वो ‘खतरनाक’ खुलासा किया, कि मैं समलैंगिक हूँ, उनकी प्रतिक्रिया गज़ब ही थी।  वो बोले “ओह! चलो, बढ़िया है ! पर अब तुम समलैंगिक लोगों के सामाजिक अधिकारों के लिए क्या करोगी ?”और उन्होंने (कई चिट्ठियों और इमेल्स के ज़रिये) लगातार ये याद दिलाना शुरू भी कर दिया कि ‘और गे लोगों को अंबेडकर पढ़ना चाहिए”। बाबा के साथ ज़िंदगी, संभावनाओं की एक टेस्ट केस थी। सेक्सुअलिटी भी इन संभावनाओं में एक थी: सेक्सुअलिटी के उस मुकाम तक जाने, फिर कहीं और निकल जाने, फिर वापस आकर उसे परखने के लिए । 

हाँ, वो जो बाबा का आमंत्रण था, कि मैं उन्हें उनके रामा  के नाम से पुकारूँ, ये मेरे साथ एक अफ़सोस जैसा रह गया है। क्यूंकि मैंने कभी वो निमंत्रण लिया ही नहीं, कभी बाबा से यूं बराबरी से बात नहीं की। आजकल तो ये और तेज़ अफ़सोस बन चला है। मैं हमारे समुदाय, गोमांतक मराठा समाज का इतिहास लिख रही हूँ। ये एक निम्न जाती, देवदासी/ कलावंती लोगों का गुट रहा है जो पिछले 200 सालों में गोवा और महाराष्ट्र के बीच रहा।

इस समाज के कई और सदस्यों की ही तरह, बाबा की परवरिश भी औरतों की एक छोटी सी सेना में हुई,  सब कलावंती, खुद्दार और उनमें किसी ने भी शादी न की। अपने समाज के ‘आर्काइव्ज/लेखागार’ में  कुछ पढ़ते- परखते हुए, मेरे मुलाक़ात फिर से ‘रामा ‘ से हुई। समाज सुधारक मैगज़ीन के July1949 के अंक में 16 वर्षीय एक रामा  का लेख है। उसने बड़े करारे शब्दों में ब्राह्मण या किसी भी सरपरस्त के बीज से संतान होने की वजह से, उस आदमी को पिता कहलाने की घोर निंदा की है। उस लेख की जवान आवाज़ खुलकर कहती है कि अब इस तरह के रिश्ते को खून का रिश्ता बिलकुल नहीं माना जाना चाहिए । रामा कहता है- कि अगर हम अपने पिता के खून को नकारें, तो हमें अपनी खून के रिश्ते की माँ से ज़बरदस्ती प्यार करने को क्यों कहा जाए? हम अपनी चाहत के आधार पर अपने परिवार की रचना क्यों नहीं कर सकते?  

इसके बाद 1970  से मुझे एक तीखा सम्पादनिय लेख भी मिला, जिसका नाम है “लग्न ज़ुरवेने: एक मनस्ताप”।( शादी का लग्न बिठाना, यानी, झुंझलाने वाला काम) ।इसमें रामा की और परिपक्व, एडिटर-इन- चीफ वाली आवाज़ सुनाई देती है। इसमें वो गोमांतक समाज की अपनी लड़कियों की शादी करानी की कोशिशों की बात कर रहा है। इस कोशिश के अंदर जो विरोध भाव हैं, अपने इतिहास के भागने की जो कोशिश है , उसकी बात कर रहा है । 

रामा  का कहना है कि माना कि हमारे गोमांतक समाज में सेक्सुअलिटी का एक बड़ा पेचीदा इतिहास रहा है, पर इस तरह शादियां करवाने से, ऊपरी सफाई करके क्या मिलेगा? शादी कराना तो थोड़ा दकियानूसी समाधान है। हम ये शादी वादी भूल कर आगे नहीं बढ़ सकते? वो ये सवाल बड़े जोश से पूछता है ।

हमारे समाज के दस्तावेज़ों के बीचों बीच बाबा की आवाज़ पढ़ने से मैंने आख़िरकार रामा को – रामा बुलाने के लिए अपनी मंज़ूरे दे दी । ऐसा करने से मैंने अपने जनक, अपने पिता से, एक नया रिश्ता कायम किया। एक ऐसे आदमी को देखा जिसने जाती, समाजी तबके, सेक्सुअलिटी, इन सबकी बहुत मार खाई, इनके बावजूद या शायद इनकी वजह से भी, उसने अपनी ज़िंदगी से एक गज़ब का कैलकुलस निकाला । मेरे पिता ने वो सब बन कर दिखाया जिसकी किसी को उनसे अपेक्षा नहीं थी। इतना वक्त गुजर जाने के बाद मैं उनसे कहना चाहती हूँ कि बाबा, हां, मैं आपको रामा  बुलाना चाहती हूँ। मैं आपके वो सारे पहलू देखना चाहती हूँ, जो मैं अपनी छोटी उम्र में देख समझ नहीं पायी थी। आप मुझसे फिर से वो रिक्वेस्ट करो न !

NB: मेरे बाबा रमाकांत महावीर अरोन्डेकर का निधन अक्टूबर 17,2018,को हुआ। उसके अगले दिन उनका 85 जन्मदिन था । वो अब भी, मेरे लिए,अकेले सच्चे कलावंत हैं।

 

डॉ। अंजलि अरोन्डेकर एसोसिएट प्रोफेसर, फेमिनिस्ट स्टडीज, हैं और सेंटर फॉर साउथ एशियाई स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सांता क्रूज़, की डायरेक्टर हैं। जाती, सेक्सुअलिटी और साम्राज्य की इतिहासकार हैं, उनका स्पेशल फोकस ब्रिटिश और पोर्तुगी कोलोनियल इंडिया है ।

 

 

 

Comments

comments

2 thoughts on “मुझे रामा कहके बुलाओ: बाबा को फिरसे, ध्यान से देखते हुए”

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *