देबस्मिता द्वारा लिखा गया और चित्रित
मेरी पहचान वालों को ये कम पता है कि आठवीं कक्षा तक, एक के बाद एक, मैं चुपचाप लड़को पर मरती थी l हर साल मेरे दिल में ऐसा एक लड़का जा बसता था l इस कतार के आख़री लड़के पर जान देने के बाद मुझे ये समझ में आया था कि मैं क्वीयर हूँ l और इसलिए कोइ ये लड़कों वाली बात जान ही नहीं पाया l
अगर आप क्वीयर हो, तो आपकी कहानी की शुरुआत हमेशा उस घड़ी से होती है जब आपको पता लगता है कि आप गे- यानी समलैंगिक हो l यानी उस घड़ी से जब आपने अपनी एक अलग पहचान को मान लिया है l आप समझ गए हो कि अगर अपनी चाहतों और प्यार करने की काबिलियत को दूसरों को समझाना है, तो एक लेबल देना ज़रूरी होगा l अच्छा, लेकिन ये सब पता लगने के पहले मेरा सेक्सुअल रुझान क्या था? पता नहीं ! और मुझे लगता है कि किसी और को भी ये जानने की जिज्ञासा नहीं l
अपनी ज़िंदगी के अलग अलग पॉइंट पर मुझे अपने क्वीयर होने का अहसास हुआ है l कभी एकदम साफ़ ऐसा लगा और कभी, ये एक धुंधला सा अहसास रहा l आठवीं क्लास में जब मेरी एक ‘बुधवार की चाहत’ ने मुझे लिखा था कि “मैं तुम्हें मिस कर रही हूँ ” और मेरा दिल धड़कने के बजाये कलाबाज़ियां करने लगा तो मैं समझ गयी थी, मैं दस प्रतिशत गे हूँ ( 10% ‘पता है मैं गे हूँ’ यानी प- ह -म -ग- ह) l और उस पॉइंट पर, जब मैंने ‘बाइसेक्सुअल’- समलैंगिक- शब्द
को गूगल किया और जब मुझे लगा था कि ” हाय ! मैं अपनी दोस्त से प्यार वाला प्यार कर सकती हूँ?” तब मैं बीस प्रतिशत क्वीयर थी, लेकिन अपना सच मानने को तैयार नहीं वाली प- ह -म -ग- ह थी l
फिर बारह्वीं क्लास में एक लड़की ने मुझे बताया कि वो समलैंगिक, लेस्बियन है तो बस सुनते ही मुझे उससे, यानी कि, प्यार ही हो गया l यानी असल में फुल स्केल प- ह -म -ग- ह होने लगी थी मैंl मैं नब्बे प्रतिशत प- ह -म -ग- ह हो गयी थी l हालांकि मुझे LGBT राइट्स के बारे में पता था और मैंने अपने को काफी पहले से हमदर्द ही समझा था l तब मुझे ये नहीं पता था कि मैं क्वीयर हूँ, पर मुझे ये पता चल चुका था कि क्वीयर शब्द किस मायने में इस्तेमाल किया जाता है, मुझे क्वीयर लोगों के अपने हक़ के लिए लड़ाइयों के बारे में पता था, मुझे अपनी पहचान के आधार पर राजनीति, यानी आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के बारे में पता था, उसकी भाषा से परिचित थी मैं l
जवान लोगों के फेमिनिस्ट ब्लोग्स का हिस्सा थी l जब हाई स्कूल के पहले, और छोटे मिडिल स्कूल की क्लास में ही मेरी दोस्त को इसलिए ‘बेईमान’ बुलाया जा रहा था क्यूंकि उसके ज़्यादातर दोस्त लड़के थे, तो मैं समझ गयी कि ये उस लड़की को घिसे पिटे तरीके से बदचलन बताने की कोशिश है और मैंने ये बात साफ़ साफ़ बोलने वालों से कह भी दी थी l इस बेवक़ूफ़ हरकत को अंग्रेज़ी में slutshaming कहा जाता है l ये मेरी ज़िंदगी का वो समय था जब अपने तजुर्बों को समझने और समझाने के लिए शब्द पाकर यूं लगता था कि एक आज़ादी मिल गयी है l
तो जब आखिर मुझे ये पता ही चल गया कि हाँ, मैं गे हूँ, तो क्या मुझे ये जान कर खुशी हुई कि मेरी लैंगिक पहचान कोई आम नहीं है, बल्कि आज की तारीख में इस पहचान का एक सामाजिक- राजनैतिक महत्त्व है?
हाँ, थोड़ा बहुत तो मैं ये सोच कर खुश हुई थी l ऐसा लगा था कि गे होकर मैं क्रांतिकारी हो गयी हूँ l पर जल्दी ही मैं बड़ी कंफ्यूज हो गयी l
क्या मैं बिसेक्सुअल- यानी उभयलिंगी- थी? पर बड़े सालों से मुझे लड़के पसंद ही नहीं आये थे l या खुदा ! कहीं मैं ऐसी तो नहीं थी जो वाकई में विपरीतलेंगिक ही है, बस समलैंगिक होने के सपने देखती रहती है? मुझे औरतों से जितना प्यार होता था, मैं उतना उनके लिए कामुक तौर पर नहीं तड़पती थी l मैं लेस्बियन- यानी समलैंगिक औरत- थी क्या? पर फिर उन हल्की रंग की आखों वाले सारे लड़कों का क्या जिन पर कभी दिल फिसलता रहता था? अपने अतीत के सच को लेकर अगर मैं फिर भी कहूँ कि मैं समलैंगिक हूँ, तो मेरा कौन विशवास करेगा ? कभी इस लेबल की आड़ में भागना, कभी उस- ये मेरा एक फुदकती गेंद सा होने का दौर तब जाके ख़त्म हुआ जब मैं ये समझी कि मैं अपने को क्वीयर बुला सकती हूँ और बात वहीं पर ख़त्म हो सकती है l
पर इसके बाद भी- अपनी पहचान के लिए एक सटीक सही शब्द की खोज जारी ही रही l बड़े सारे लेबल अपनाये मैंने : कभी ये लैंगिकता, कभी वो, यानी तरल लैंगिकता l जेंडर फ्लूइड l कभी और, अलैंगिक l वो जो दिल देने पर ही कामुकता के बारे मैं सोच पाए- यानी डेमी सेक्सुअल l वो जिसे कामोन्माद, यानी ओर्गास्म कभी न हो- अनोर्गास्मिक l अपनी इन्द्रियों को सहलाने वाला सेक्सुअल ( ये लेबल तो मेरा रचा है !) l औरत l अब भी, कसम से, महीने में एक बार तो ऐसा लग ही जाता है कि मुझपर लेस्बियन का लेबल फिट बैठता है l और कभी कभार, डर से भरे किसी पल
में ये शक भी लौट आता है कि ये सब तो ड्रामा कर रही हूँ मैं ( जिसे अंग्रेज़ी में faking it- फेकिंग इट- कहते हैं )- तब लगता है कि वास्तव में मैं एक सरल साधारण विपरीतलिंगकामी- हेट्रोसेक्सुअल हूँ ! कॉलेज जाने के कुछ एक साल पहले तक तो हर दूसरा ख़याल इसी एक बात को लेकर होता था l मतलब मेरे दिमाग पर पूरी तरह छा गया था ये ख़याल l और कुछ सोचने की जगह ही काम हो गयी थी l मुझे लगा जैसे इस एक बात की सनक सवार हो गयी थी मुझपर l
इस तरह घड़ी घड़ी अपनी क्वीयर पहचान को और बारीकी से लेबल देने के चक्कर में, मैं बिन सोचे प्यार कर बैठने के काबिल ही नहीं रही l मैं तो यूं दिखाती हूँ कि लड़कों को चाहने का मेरे शुरू का दौर कोइ मायने ही नहीं रखता, पर सच तो ये है कि वही एक वक्त था जब मेरी चाहतें सिर्फ मेरी थीं l किसी बड़ी मुद्दे का हिस्सा नहीं थीं l ख़ास अलग नहीं थीं l जब मेरी चाहतें बस मेरे लिए मायने रखती थीं, किसी और की बात, या किसी बड़ी बात या बड़े सिद्धांत का हिस्सा न थीं l
कॉलेज जाने पर मुझे ये समझ में आने लगा कि मैं कौन हूँ l वैसे सच कहूँ तो मैं ये और आसानी से बताने लगी कि मेरी लैंगिकता किस लेबल में सही फिट होती है l मैं लोगों से अपनी क्वीयर पहचान का खुलासा करना लगी l साथ साथ क्वीयर आर्ट करने से मुझे दिलासा मिलने लगा l और लोग भी मुझे देख कर कहने लगे- देखो, ये क्वीयर है l मेरा काम मुझे सच में दिलासा देता l मतलब मैं ऐसी इमोशनल औरत टाइप थी उन दिनों कि मुझे हर दिन किसी से प्यार हो जाता- कभी किसी विपरीतलिंगी करीबी दोस्त से, रूम मेट से, किसी खूबसूरत सीनियर से- यानी हर किसी से l ऐसे में मैं अपने काम में जवाब ढूंढती l जब मैं इस बात से कंफ्यूज हुई कि मैं आखिर रोमांस समझने या उसकी तरफ कुछ कदम बढ़ाने के काबिल क्यों नहीं हूँ, तो मैंने जवाब अपने काम में ढूँढा l अपने काम में मैंने अपने क्वीयर होने को हद तक परखा, उसकी जांच पड़ताल की l मैंने एक एनीमेशन बनाया, ये कहने के लिए कि विषमलैंगिक लोगों के लिए तो दुनिया भर का मीडिया उपलब्ध है, जो उन्हें उनकी रोमांस सम्बंधित परेशानियों को सुलझाने में मदद करे l पर हम क्वीयर लोगों के पास सिखाने वाला ही कोई और कुछ नहीं l जब मेरा दिल टूटता और कोइ राजनैतिक समझ काम ना आती, तो मैं ड्राइंग करने लगती l और अपने इंस्टाग्राम पर डाल देती l
अब भी कभी कभार कुछ आर्टिकल्स में मेरा ज़िक्र क्वीयर इंस्टा आर्टिस्ट के रूप में होता है l (मैं खुद अपने आप को, प्राइवेट में, गे रूपी कौर बुलाती हूँ ) l मेरा पर्सनल हमेशा पोलिटिकल होगा l मेरी राजनीति का निर्माण मेरी निजी ज़िंदगी से होगा l तो बस मैंने इस बात का फायदा उठा कर एक पोर्टफोलियो बना डाला l तो एक तरफ यूं मेरा नाम हो रहा था- क्वीयर आर्टिस्ट, क्वीयर इंसान, और मेरे दोस्तों के बीच, पक्की गे दोस्त के रूप में l पर सच तो ये था कि मैं बस एक इंसान थी, जिसे अपनी लव लाइफ या सेक्स लाइफ दोनों को कैसे बसर करना है, कुछ पता ही नहीं था l
मैंने अपना सारा दम इस बात में लगाया था कि मेरी लैंगिक पहचान औरों के काम आ सके – दुनिया को बदलने के काम, अपनी राजनीति को आवाज़ देने के काम, और मैंने इस ‘काम आने’ वाली बात को बड़ी अहमियत दी थी l इस बात को अपनी निजी ज़िंदगी से भी ज़्यादा अहमियत दी थी l मैंने अपनी लैंगिक पहचान का खुलासा किया था, और मुझे इसपर बड़ा गर्व था l पर जैसे जैसे मैं अपनी निजी ज़िंदगी को थोड़े करीब से देखने लगी, मुझे अचानक यूं लगा कि अंदर ही अंदर मैं कई बातों से शर्मसार हूँ ! और ये शर्म क्वीयर होने से नहीं जुडी है l ये कोई और बात है l
‘सब कुछ बेहतर होते रहेगा ‘ वाली कहानियों का एक बढ़िया हिस्सा अपनी लैंगिक पहचान का खुलासा करने से जुड़ा होता है l ये तो मैंने कर लिया था l मुझे पहले से ही पता था कि औरतों को पसंद करने, चाहने, कामुक रूप से चाहने, इन बातों में कोई खराबी नहीं हैl फिर भी मुझे मेरी अपनी निजी ज़िंदगी बड़ी- मायूस सी लगती थी l जब भी मेरा दिल किसी पर आता, उस बात के बन पाने की असम्भवता मेरे ऊपर बोझ की तरह सवार हो जाती l मुझे प्यार करने में डर लगता क्यूंकि हर बार मेरा दिल जिसपर आता, वो या तो विपरीतलेंगिक होती या फिर मैं उसे पसंद नहीं आती l मैंने अपने को अपनी फीलिंग्स का इज़हार करना सिखाया पर मैं ये तब जाकर करती जब मैं पूरी तरह उस इंसान से जुड़ गयी होती l
मुझे फ़्लर्ट करना नहीं आता था, पानी में पहले एक कदम डाल कर आज़माना नहीं आता l मेरी तो ये हालत थी कि किसी क्वीयर इंसान से दोस्ती करने के ख़याल से ही मैं घबराने लगती l उनसे उनकी ओर अपना कामुक आकर्षण का इज़हार करना, ये तो बड़ी दूर की बात थी l कॉलेज में हर तरफ रोमांसिंग, सेक्सींग और उड़ान भरते होर्मोनेस की दुनिया हमें घेरे थी l पर मुझे कुछ पता ही नहीं था कि सेक्स को लेकर मेल जोल कैसे होता है l न ही कि खुद ऐसी बातों में कैसे शामिल हों l
मेरा ख़याल है कि मैं इसलिए किसी क्वीयर इंसान से दोस्ती नहीं कर पाई क्यूंकि मुझे लगता था कि मुझे जो एक सहारा और साथ देने वाला वातावरण मिला था, वो अपने आप में काफी था l कि मैं उससे ज़्यादा कोई उम्मीद नहीं रख सकती थी l मुझे तो शर्म सी आती थी कि मुझे अपने लोगों की इतनी ज़रुरत थी l कि मेरी निजी ज़िंदगी में मैंने कुछ ख़ास आज़माया ही नहीं था, मेरे कोई रोमांटिक तजुर्बे ही नहीं थे l बावजूद इसके कि मैं एक उदार पंथी स्कूल में पढ़ी थी, ऐसा स्कूल जहां ( ये बात वाकई किसी ने मुझसे कही ) ‘ हर दूसरा विद्यार्थी बाइसेक्सुअल था’ l
अगर क्वीयर औरतों के सक्रियता से सेक्स पार्टनर ढूंढने के लिए कोई शब्द होता, तो मैं तो उसमें फिसड्डी होती l जब कभी मैं किसी क्वीयर इवेंट में जाती, मैं देखती कि लोग कैसे एक दूसरे के साथ खुल कर कितने कॉन्फिडेंस के साथ फ़्लर्ट कर रहे हैं l इस सब से मुझे और शर्म ही आती, मेरी शंकाएं, मेरे वहम, और बढ़ जाते l मुझे लगता मुझे तो पता ही नहीं कि ये सब कैसे करा जाता है l खुल कर अपनी लैंगिकता का ऐलान करके गर्वित होना – वो मैं कर चुकी थी l आज
मुझे लगता है कि शायद उस समय जो बात मुझे समझ नहीं आयी वो ये थी कि वास्तव में मैं अपनी कामुकता से जूंझ रही थी, अपने समलैंगिक होने से नहीं l यानी वो वो लड़ाई थी जो कि हर एक के जीवन का आम हिस्सा होती है l
एक क्वीयर व्यक्ति के लिए वो पूरा स्ट्रगल दुर्बल बना दिया जाता है और केवल ‘अपने लैंगिकता का खुलासा करना’ अहम माना जाता है l क्वीयर इंसान का मुख्य उद्देश्य बस अपने खिलाफ हो रही असहनशीलता का विरोध करने तक रह जाता है l तो फिर ‘प्यार के बारे में सीख’ तो मिलती ही नहीं l प्यार करना, चाहत करना, प्यार और सेक्स भरी ज़िंदगी को रूप देना- ये सब तो छूट ही जाते हैं l
मैं अपने क्वीयर होने के ज़रिये ज़िंदगी के सारे सवालों का जवाब ढूंढती थी l ये जान कर एक तरह का आश्वासन मिलता था कि किसी भी क्वीयर इंसान को ( स्टेटिस्टिक्स के अनुसार ) प्यार मिलने में परेशानी हो सकती है l तो चलो मेरा क्या कसूर ! ऊपर से न ज़िन्दगी न मीडिया – कोई भी क्वीयर औरत होकर डेटिंग करने पर शिक्षा नहीं देता ! पर इन बातों की धुंध ने मेरी नज़रों से एक ज़रूरी बात छिपा दी l वो ये कि जो शर्म मैं महसूस करती थी, वो क्वीयर होने से नहीं, बल्कि वो किसी भी किस्म के सेक्स से जुडी हुई शर्म थी l
तो मैं ये मानती हूँ कि आइडेंटिटी के तौर पर मैंने अपनी पहचान जल्द ही पा ली ( और सच, गनीमत है, कि मुझे अपनी लैंगिकता को लेकर कभी सदमा नहीं लगा कि मैं ऐसी ‘विकृत’ क्यूँ हूँ- जो कि अक्सर क्वीयर लोगों को शुरुआत में लगता है ) l पर साथ साथ बहुत जल्द ही, मेरी क्वीयर पहचान मेरे लिए एक किस्म का पर्दा बन गयी, या एक बचाव l ये कवच उन सारी आँधियों से मुझे बचा कर रखता था जो आम तौर पर निजी ज़िंदगी, प्यार और सेक्स के रिश्तों का अहम् हिस्सा हैं l और इस तरह मैंने इन सारे तजुर्बों में कदम ही नहीं रखा l मेरे लिए अपने क्वीयर होने को सामने लाना आसान हो गया l मैं खुद ये भूलती गयी कि मुझे अपने लिए प्यार और सेक्स की ज़रुरत है, न कि किसी सिद्धांत पर खरे उतरने के लिए l
एक तरह से इस बात को भूल जाना इसलिए भी आसान हो गया क्यूंकि मुझे एक तरह से सिखाया ही गया था कि सेक्स- रिश्ते- प्यार- मोहब्बत वक्त की बर्बादी हैं. “मैं क्वीयर हूँ’ ये कहकर इस बात के सैद्धांतिक और सामाजिक
पहलूओं पर गौर करना ज़्यादा आसान था l “मैं क्वीयर हूँ” ये कहकर और क्वीयर लोगों से दोस्ती बढ़ाने, उनसे रिश्ते बनाने की अपनी इच्छा ज़ाहिर करना ज़्यादा मुश्किल था l
जब मैंने कॉलेज में अपने लिए अपनी बात कहने के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाने की कोशिश की, तब भी मुझे ये डर खाता कि कहीं लोग ये ना समझ बैठें कि मैं ये सब कहकर, डेट पाने के चक्कर में हूँ l प्यार और सुख पाने की अपनी बुनियादी चाह, जैसे कि एक शर्म की बात बन गयी है l जबकि ये चाह तो हर इंसान की होती है l मेरे इर्द गिर्द जो बहुत जागरूक लोग हैं ( जिन्हें अंग्रेज़ी में ‘वोक ‘ कहते हैं ) – वो भी किसी के करीब आने की अपनी ख्वाइश को कभी ज़ाहिर नहीं करेंगे ( वो होते हैं ना, जो टिंडर पर आये लोगों का मज़ाक उड़ाते हैं , उन्हें शर्मिन्दा करते हैं) l
अपने अकेलेपन का सच सामने से कह देना तो अपने सिद्धांतों को खारिज कर देने जैसा माना जाता !
मुझे लगता है कि जब मैंने खुद टिंडर ज्वाइन किया, उस घड़ी मैंने इस दूसरों की दी हुई शर्म को ठीक से
समझा l टिंडर-भाई के मेरे पर बड़े अहसान हैं l वो मेरा साथी रहा, शकुंतला की प्रियंवदा जैसे , और उसने मुझे वो करने को प्रोत्साहित किया जो मैं अपनी निजी ज़िंदगी में करना चाहती थी l हाँ ये करने से मुझे थोड़ी निंदा मिली, क्यूंकी मेरे बाजू करीबी लोग टिंडर को उतने सीरियसली नहीं लेते थे l मेरा टिंडर पर खाता तब खुला जब मैं एक एक्सचेंज प्रोग्राम पर थी, घर से बहुत दूर l मैं अपनी डेट को रात के खाने के बाद अपनी डारमेट्री भी ले कर आयी, और इस तरह सेक्स के लिए डेट करने वाली होने की शर्म पर मैंने विजय पाई l
वापस इंडिया आने पर मुझे थोड़ा टाइम लगा और एक ( और) बार दिल के टूटने पर ही मैंने डेटिंग की दुनिया में कदम बढाए l टिंडर की मेहरबानी से मैंने पहली बार अपने को अपने निजी दृष्टिकोण से क्वीयर के रूप में देखा l पहली बार सेक्स को लेकर टेक्स्टिंग की l कई बार डेट पर गयी l अपनी दिलचस्पी दिखाना सीखा, दूसरे की दिलचस्पी भांपना भी l चाँद की तस्वीरें भेजीं l बतियाई l बहुत बतियाई l ये तो सीखा ही कि लोग अपने रोमांटिक और सेक्स पार्टनर कैसे ढूंढते हैं l साथ साथ कई क्वीयर औरतों से मिली और उनसे लम्बी बातें कीं, ऐसी बातें जिन्हें करना मेरे लिए बड़ा ज़रूरी था और मुझे पहले अपनी इस ज़रुरत का अंदाजा ही नहीं था l टिंडर की वजह से मुझे और ‘क्वीयर ‘ दोस्तों की संगत चाहने पर अब शर्म नहीं आती थी l इस तरह धीरे धीरे मेरा एक सपोर्ट ग्रुप सा बनने लगा l
मुझे से सब करके जो सुकून मिला, बिना इस बात की चिंता करे हुए कि मैं बहुत ज़्यादा की मांग तो नहीं कर रही – उस सुकून को कैसे बयान करू ?
काश कि कोई तरीका होता जिससे मैं आसानी से दूसरों को बता पाती कि करीब होने की चाहत शर्मनाक बात नहीं है l कि मैं अपनी माँ से ये बयान कर पाती कि मेरे लिए मेरे प्रेमी उतने ही ख़ास हैं जितना मेरा परिवार, और ये भी कि कभी कभी टिंडर मेरी सबसे पसंदीदा जगह है l
मुझे कभी भी क्वीयर होने पर शर्म नहीं आयी है l पर हम क्वीयर लोगों पर एक अजीब सा नैतिक दबाव डालते हैं, जिसके अनुसार उन्हें हर वक्त अपनी बात समझानी होती है, दुनिया को बदलने में सक्रीय होना होता है, या अपने आप को मानो एक ट्रॉफी की तरह सामने रखना होता है, दूसरों की नुमाइश के लिए l यही वजह थी कि मैंने अपने को इस अजीब तरह से रचा, अपनी चाहतों के दबाया और शर्म को घर दिया l जब मुझे पता चला कि मैं क्वीयर हूँ, तब मैंने आइडेंटिटी पॉलिटिक्स- पहचान को लेकर राजनीति- की भाषा सीख ली l ये मैंने सिर्फ अपने आप को समझ
पाने के लिए नहीं किया, बल्कि इसलिए भी किया क्यूंकि मुझे लगा था कि इस भाषा के बिना तो मुझे क्वीयर समुदाय अपनाएगा ही नहीं l
पर एक मकाम पर ये भाषा मेरे लिए कम पड़ गयी, क्यूंकि इसके परदे ने मुझे मेरे अंदरूनी जज़्बातों से दूर कर दिया l मोहब्बत और करीब होने की मेरी चाहतों को मुझसे छिपा दिया l मैं पहचान की राजनीति- identity politics- की बहुत कदर करती हूँ l ये भी समझती हूँ कि उसके दायरों में अपनी पहचान को समझना कितना ज़रूरी हो सकता है l पर साथ साथ ये भी चाहती हूँ कि हर क्वीयर इंसान को वो सुकून मिले जो तब आता है, जब आप ये मान पाते हैं
कि आप दुनिया के हर एक इंसान के सामान हो, उनसे अलग नहीं , क्यूंकि आप भी उनकी तरह प्यार और चाहत से भरे हुए हो l दुनिया हमें वैसे भी पराया बनाने पर तुली है, राजनीतिक बनाने पर भी l ऐसे में, ये ज़रूरी हो जाता है कि अपने आप को ये खुलापन दिया जाए, इस मकसद से ही सही, कि आप भी आम दुनिया में शामिल किये जाएँ l
मेरे लिए ये अब भी मुश्किल है, पर मैं कोशिश करती हूँ कि मैं बिना अपने को अजीब समझे, मरीन ड्राइव पर चलते हुए अपनी गर्लफ्रेंड का हाथ पकड़ सकूं l ऐसे इज़हार करने से कतराऊं नहीं और अगर कोई दूसरा फ़िल्मी किस्म का इज़हार करे तो उसको फूटी आँख से ना देखूं l मैं प्यार को अहमियत देना सीख रही हूँ l मुझे हमेशा सिखाया गया है कि परिवार और काम अहम् बातें हैं और प्यार सेकंड हैंड माल है l कि मेरा प्यार को यूं चाहना ये बयान करता है कि मुझमें कुछ कमी है l पर मैं इस शर्म से परे जा रही हूँ l अब चूमने से जो प्यार भरे घाव दिखते हैं न, मैं उन्हें देखने दिखाने से कतराती नहीं हूँ l और अपनी निजी ज़िंदगी में आराम से रहती हूँ, उसपर थ्योरी / सिद्धांत नहीं लादती l ज़िंदगी को एक क्वीयर आर्ट प्रोजेक्ट नहीं बना डालती l यानी मैं एक शांत क्वीयर बनने की और काबिल हो गयी हूँ l पहले जब मैं ऐसे क्वीयर लोग को देखती थी जो अपनी पहचान पर ज़्यादा हल्ला न मचाते हुए चुपचाप जीते थे, तो मैं उनसे चिड जाती थी l मुझे लगता था कि उस बात का राजनीतिक तौर पर ऐलान न करके वो अपनी ड्यूटी नहीं पूरी कर रहे थे l
पर आजकल जब मैं ऐसे लोगों को देखती हूँ, मुझे दिलासा मिलता है, एक किस्म की आज़ादी का अहसास होता है उन्हें देख कर l ये बात मन में लौट आती है कि मेरी पहचान जो भी हो, दिन ढलते हुए मैं भी सबके जैसे, एक इंसान हूँ l
thank you so much for this.. this really speaks to me and gives me so much hope. ive also always felt a bit uncomfortable/unsure by labels and putting myself out there but yet i wanna be “out and proud” and have a girlfriend to love and dote on. thank you again <3